शंघाई
भारत में विकास और उन्नति के नाम पर
गरीबों को उजाड कर, उनकी जमीनों पर कब्ज़ा करके जो इंडस्ट्री, शापिंग माल या
बिल्डिंग बनाने कि नीति चल रही है उस नीति को हम शंघाई कह सकते हैं। और हाँ अगर आप के अंदर गुंडों को “रिश्ते में हम तुम्हारे बाप लगते हैं” जैसा कुछ बोलने कि ताकत ना हो लेकिन आप
डरते हुए भी अपनी ताकत का समझदारी और चतुराई से सदुपयोग कर सकते हैं तो भी आप नायक
है आप हीरो हैं।
शंघाई वेसेलिस वेसिलिकोस द्वारा लिखी नोवेल ‘ Z’ पर आधारित है . जिस पर ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित एक
फ्रेंच फिल्म १९६९ में बन चुकी है।
तो कहानी यूँ है की भारत नगर बस्ती को उजाड कर जो प्रोजेक्ट (IBP) लाया जा रहा है
उसका विरोध करने के लिया डाक्टर अहमदी (प्रसन्नजीत) अमेरिका से आये हुए हैं, जिनको
उनके समर्थकों के सामने ही एक ट्रक टक्कर मार कर चला जाता है। डाक्टर कि समर्थक शालिनी (कलकी
कोएच्चलीन) अन्य समर्थकों के साथ इस दुर्घटना को ह्त्या बताकर जांच कि मांग करती
है, जिसके लिए मुख्यमन्त्री द्वारा एक जांच आयोग बिठाया जाता है जिसके अध्यक्ष टी ए कृष्णन (अभय देओल)
हैं।
सरकार कि अपेक्षा है कि कृष्णन इसे एक एक्सीडेंट बताकर रफा
दफा करे, जबकि कृष्णन को जांच में कुछ और ही सच्चाई नज़र आती है। जोगी परमार (इमरान हाशमी) जो एक
पोर्नोग्राफर (खुद को लोकल मीडिया बोलने वाला) है उसके द्वारा दिए गए सबूत कृष्णन
को घटना के तह तक पहुंचा देते हैं। और अब आप को ना सिर्फ ये पता चलेगा कि
घटना के पीछे कौन कौन है बल्कि ये भी कि परिस्थिति और सिस्टम में बंधे होने के
बावजूद समझदारी से रास्ता निकला जा सकता है, होनी चाहिए तो बस इसे करने कि चाह।
फिल्म कि पठकथा लिखी है दिबाकर बनर्जी और उर्मी जुवेकर ने। फिल्म का ट्रीटमेंट ही वो एक पहलू है जो
आपको पूरी तरह फिल्म में बांधे रखता है। फिल्म कि शुरुआत में आपको घबराहट हो सकती है कि फिल्म आपको
समझ में आने वाली है भी कि नहीं, लेकिन थोड़ी ही देर में सब कुछ साफ़ हो जाएगा। निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने छोटी छोटी
बातों का बहुत ध्यान रखा है, मसलन जहाँ एक ओर जोगिन्दर का फोन पर शालिनी का नाम ड्रीमगर्ल
लिखना और उसकी स्पेलिंग 'dreemgirl' होना, भीड़ में फोन
पर बात करते आते जाते लोग, एक सरकारी ऑफिस, हार्ड डिस्क को हार्ड डिक्स बोलना और
ऐसी बहुत सी बातें, वही दूसरी ओर पुलिस और प्रशाशनिक अधिकारियों के बीच कि टशन।
कहना होगा कि दिबाकर ने एक साधारण सी कहानी को अपने
निर्देशन से बेहतरीन बना दिया।
विशाल शेखर का संगीत अच्छा है। गानों के बोल फिल्म कि कहानी के ही हिस्से हैं
यहाँ तक कि ‘आईटम सांग’ भी। ‘इम्पोर्टेड कमरिया’ गाना जहां विदेशी ‘सामान’ के प्रति हमारी सनक को दिखाता है वही ‘भारत माता कि जय’ गाना अन्याय का
जश्न मनाने का गाना है। ज्यादातर हिस्सों में कोई भी बैगराऊन्ड म्युजिक नहीं है,
यहाँ तक कि एक दो सीन को छोड़ दिया जाए तो किसी ने ऊंची आवाज़ में बात भी नहीं कि है।
इमरान हाशमी ने इस फिल्म में वो करने कि हिम्मत कि है जो
भट्ट कैम्प में वो शायद बीस लगातार हिट फिल्म देने के बाद भी ना कर पाते। एक पोर्नोग्राफर जिसके दांत आगे से काले
हैं, वो पूरी फिल्म में ना सिर्फ एक ही कपड़ा पहनता है बल्कि उसका पेट भी निकला हुआ
है। अपनी ये दशा बनाने
के बाद इमरान को जो मिला वो है एक अच्छा रोल जिसे उन्होंने बखूबी निभाया जिसके लिए उनकी भरपूर प्रसंशा की जानी चाहिए। अभय देओल एक दक्षिण भारतीय आई ए एस अधिकारी कि भूमिका में
हैं। अब मज़े कि बात ये है
कि अभय देओल हर सेकण्ड पूरी फिल्म में सिर्फ दक्षिण भारतीय ही लगते है वो भी बिना ‘अइय्यो’, ‘रामा’ और ‘तुम क्या करता जी’ बोले बिना। है ना कमाल कि बात??? और सिर्फ इतना ही नहीं उन्हें एक ऐसे डरने वाले
व्यक्ति का रोल अदा करना है जिसे काम बहादुरी वाले ही करने है।
शाबाश अभय।
कलकी ने अपना काम अच्छे से किया है फिर भी यही दुआ की जानी
चाहिए कि उनको कभी तो कुछ अलग करने का मौक़ा मिले।
प्रशंनजीत, सुप्रिया पाठक, पितोबश त्रिपाठी, अनंत जोग सभी
ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है।
आपने वो शंघाई चाहे ना देखा हो पर ये शंघाई आप जरूर देखे और
अगर आप ये फिल्म किसी माल या मल्टीप्लेक्स में देखते है तो ये भी जरूर सोचियेगा कही
ये मल्टीप्लेक्स भी तो शंघाई का हिस्सा नहीं है???
****/5
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