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चलिए इस फिल्म के बाद ये तो पक्का ही हो
गया है की भारत-पकिस्तान के बार्डर से ज्यादा गोलियाँ सिर्फ वासेपुर में ही चली
हैं। लेकिन हाँ
गोलियों के अलावा भी फिल्म में बहुत कुछ है जो देखने लायक है, और यही दुआ करनी
होगी की “ये वार आख़िरी ही होगा”।
फिल्म के पहले पार्ट में किरदारों को
पहचानने की समस्या से जूझ रहे दर्शकों को इस बार कम दिमाग खर्चना होगा। फिल्म पहले भाग के
आखिरी द्रश्य के साथ शुरू होती है। कुछ नए किरदार जैसे परपंडीकुलर और डेफिनिट भी शामिल किये
जाते हैं। सरदार खान
(मनोज बाजपेयी) के दूसरे बेटे फैज़ल (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) ने कमान संभाल ली है, और
अब सबके एक एक करके मरने की बारी है। बस समस्या ये है की लोग कहानी में नहीं मर रहे हैं बल्कि
लोगो का मरना ही कहानी है।
यानी कम्प्लीट छीछालेदर।
जहां तक निर्देशन का सवाल है अनुराग कश्यप हिंदी फिल्मों के
वो निर्देशक हैं जो ना सिर्फ बाकी से जुदा हैं बल्कि उन पर गर्व भी किया जा सकता
है। उत्तर भारत
में पले बढ़े लोग फिल्म के माहौल से खुद को पूरी तरह जुड़ा हुआ पाएंगे। शहर की गालियाँ,
घर, आँगन, दुकानदार, पुलिस थाना सब कुछ परफेक्ट। लेकिन अफ़सोस तब होता है जब हज़ारो छोटी
छोटी खूबसूरत बातों को नज़रंदाज़ करके जिन बातों पर लोग ठहाके लगाते या ताली बजाते
हैं वो वही गालियाँ हैं।
अब दूसरा सवाल ये है की दूसरे भाग में दिखाने को बचा क्या
था? दरअसल फिल्म तब बेहतरीन हो जाती जब पूरे साढ़े पांच घंटे को ३ घंटे के अंदर
समेटा जाता। या फिर
एकता कपूर को टीवी में चुनौती दी जा सकती थी। फिल्म
बेहतरीन निर्देशन के बावजूद इतनी लंबी है की आप किसी के फारवर्ड किये SMS भी पढ़ना चाहेंगे।
माना की बिहार, झारखंड में माफिया है, लेकिन किसी का गोली
चलाते में रिवाल्वर का धोका दे जाने में ज्यादा सच्चाई दिखती है बजाये एके 47 के जखीरे के। अगर DDLJ देखने के
बाद किसी को ये कहा जाए की “बेटा तुमसे हो नहीं पायेगा” (गुंडागर्दी) तो फिर निर्देशक को ख्याल रखना होगा की चोपड़ा-जोहर के सपनो
की दुनिया को थोड़ा और सच्चाई से चुनौती दे।
अनुराग कश्यप के अलावा इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह
नवाज़ुद्दीन हैं। गांजे के
नशे में डूबी आँखे, दिल की बात कहने के लिए घिग्घी बंधी दशा या फिर हिंदी फिल्म के
हीरो की तरह बनने की चाह, नवाज़ुद्दीन हर जगह कमाल हैं। एक बेहतरीन अभिनेता को अपने मुकाम की
तरफ बढते देखना सुखद है। हुमा कुरैशी के चहरे पर आत्मविश्वास है और उन्होंने अपना
काम अच्छे से किया है। जीशान कादरी का नवाज़ुद्दीन की उपस्थिति में भी अपनी पहचान
छोड़ना प्रशंशनीय है। तिग्मांशु
फिल्म के पहले भाग से भी बेहतर हैं। यशपाल का आना पेट में बल पड़ जाने की हद तक हँसने की गारंटी
है। पियूष मिश्रा
एक बार फिर काम के नाम पे खुद को मार रहे हैं।
राजीव राय की सिनेमेटोग्राफी काफी उम्दा हैं, एडिटिंग थोडा
और पैनी हो सकती थी। स्नेहा
खानवाल्कर का संगीत अच्छा है लेकिन ये समझ नहीं आया की फिल्म के संगीत में ऐसा क्या
है जिसके लिए उनको “त्रिनिदाद” की यात्रा
करनी पड़ी? हालांकि मोहसीना का फैज़ल को सन्तावना देने के लिए गाये जाने वाला गाना
काफी हास्यास्पद लगता है। पियूष मिश्रा और वरुण ग्रोवर ने बाकी गाने अच्छे लिखे हैं।
हालांकि ये समझना मुश्किल है की अनुराग ने ना सिर्फ दुसरा भाग
भी बनाया बल्कि फिल्म की लम्बाई में भी कोई समझौता नहीं किया। लेकिन गौर किया जाए
तो उन्होंने फिल्म के एक डायलाग में कारण बता भी दिया है....
“हिन्दुस्तान में जब तक सनीमा है, लोग चू#$या बनते रहेंगे”
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