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Friday, December 30, 2011

रॉकस्टार


नए हिन्दुस्तान कि जनता के एक बड़े वर्ग को हमेशा ही एक राकस्टार कि जरूरत रही लेकिन बाकि सभी अधूरे सपनो के तरह इस ख्वाब को किसी हिन्दुस्तानी फिल्म ने पूरा नहीं किया. लन्दन-ड्रीम्स ने जहा निराश किया वही राक-ऑन का प्रभाव भी सीमित था.

और अब राक-स्टार...

पता है... यहाँ से बहुत दूर,

गलत और सही के पार,

एक मैदान है,

मैं वहाँ मिलूँगा तुझे...

ये बड़ा जानवर है, छोटे पिंजरे में नहीं समाएगा .

राकस्टार इन दो संवादों के बीच कि कहानी है.

ये कहानी है जनार्दन जाखर (रनबीर कपूर) कि जो दिल्ली के आम मध्यमवर्गीय परिवार से है और अपने आदर्श जिम मोर्रिसन कि तरह एक राकस्टार बनना चाहता है. जहा जनार्दन के इस ख्वाब का आमतौर पर उसके दोस्तों द्वारा मजाक उडाया जाता है वही कॉलेज कैंटीन के मालिक खटाना (कुमुद मिश्रा) ही उसके ख्यालो से थोडा सहानुभूति रखता है. खटाना, जनार्दन को सलाह देता है कि एक बड़ा कलाकार बनने के लिए दिल का टूटना जरूरी है, राकस्टार बनने कि चाह में अब जनार्दन को अपना दिल तोडना है. जनार्दन अपना दिल तोड़ने के लिए हीर कौल (नरगिस फाकिरी) को चुनता हैं, जो जनार्दन के कॉलेज कि एक ख़ूबसूरत सी लड़की है और जनार्दन जैसे किसी भी लड़के के पहुँच से बाहर है और इसलिए वो जनार्दन का दिल तोड़ने के लिए बिलकुल उपयुक्त है. एक ग़लतफ़हमी दूर होने के बाद जनार्दन और हीर जल्दी ही अच्छे दोस्त बन जाते हैं. दोनों के बीच कि दोस्ती में पनप रहे प्यार का अहसास हीर को होता है लेकिन वो इसका इज़हार कर सके इसके पहले ही हीर कि शादी हो जाती है और वो प्राग (Czech Republic) चली जाती है. इसी बीच जनार्दन को उसके अपने घर वाले चोरी का एक झूठा इलज़ाम लगा के घर से बाहर निकाल देते हैं और जनार्दन दर-दर कि ठोकरे खा रहा है. अचानक एक दिन किस्मत पलटा खाती है और एक संगीत कंपनी द्वारा न सिर्फ वो अनुबंधित है बल्कि उसे प्राग जाने का मौका मिलता है! प्राग में जनार्दन धूम मचा रहा है और अब वो “जोर्डन” है.
निर्देशक इम्तिआज़ अली और मुआज्ज़म बेग कि लिखी कहानी की पटकथा भी इम्तिआज़ ने ही लिखी है! लेखक ने एक युवा दिल के विद्रोही स्वभाव और उसके सही और गलत के परे जाने की मानसिकता की सही तरीके से व्याख्या की है और इसी वजह से कुछ सवालों का अनुत्तरित रह जाना स्वाभाविक है. लेकिन यही अनुत्तरित सवाल फिल्म की व्यावसायिक सफलता पर असर डाल सकता है . वैसे विवाहोत्तर बने प्रेमसंबंध की कहानी भारतीय जनता के लिए हमेशा ही सबसे ज्यादा संवेदनशील विषयों में से एक रही है. महानगरों में रहने वाली “क्रीमी लेयर” और शेष आम जनता की सोच के बीच आज भी  जमीन आसमान का फरक है और इसलिए ऐसे किसी भी संबंध की कहानी को अपनाने के लिए आम जनता को एक विशेष कारण की जरूरत होती है. जो की यहाँ नहीं है.  इम्तिआज़ अली के इस फिल्म में भी नायिका को एक बार फिर अपने प्यार का अहसास तब होता है जब सामाजिक मर्यादा इसकी इजाज़त नहीं देती है. फिल्म का अंत  भी थोडा अनुत्तरित है. हालाँकि रनबीर के पात्र को बड़ी खूबसूरती से लिखा गया है. साधारण से लड़के से लेकर एक आक्रामक और कुंठित सफल राकस्टार की यात्रा बखूबी दिखाई गयी है. और हाँ राकस्टार बन जाने बाद भी वो अपने आदर्श जिम मोरिसन की तरह शराब और ड्रग्स में नहीं फंसा हुआ है . इम्तिआज़ अली के लिखे हुए फिल्म के संवाद जहाँ गंभीर हैं वही दर्शकों को हंसाने में भी सफल रहे हैं.
निर्देशक इम्तिआज़ अली का निर्देशन हमेशा की तरह अव्वल दर्जे का है . प्रेम-संबंधों को इम्तिआज़ ने हमेशा ही खूबसूरती से निभाने का प्रयास किया है जिसमे वो हमेशा ही सफल रहे है. बल्कि मेरे विचार से इम्तिआज़ अली ने हमेशा ही अपनी बात कहने के लिए प्रेम-संबंधो का सहारा लिया है .. इसलिए उनकी फिल्में सिर्फ एक प्रेम-कहानी नहीं होती है . यहाँ भी सही-गलत की मर्यादा से बाहर एक आधुनिक सोच को निर्देशक ने सफलतापूर्वक दिखाया है या यु कहे की एक युवा “फोल्डर” पर “डबल-क्लिक” मार कर खोल दिया है. और इसकी हर फ़ाइल आप के सामने आ जायेगी .
सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता ने एक बार फिर कश्मीर के वही दर्शन कराये जैसे खूबसूरती हम अब सिर्फ किताबों में पढ़ रहे है. प्राग की सडको और स्टेडियम का ऊँचाई से फिल्माया गया द्रश्य बहुत अच्छे हैं. फिल्म को रोम और हिमाचल में भी फिल्माया गया है.
फिल्म के शुरू होने के कुछ देर बाद ही आप को अहसास हो जाएगा की फिल्म एक बेहतरीन एडिटर द्वारा एडिट की जा रही है. और आरती बजाज ने हमेशा की तरह ही बेहतरीन काम किया है. हालाँकि फिल्म की लम्बाई कुछ ज्यादा है लेकिन ये एडिटर के द्वारा कम नहीं की जा सकती थी, अलबत्ता एडिटर ने दृश्यों को एक से ज्यादा बार दिखाकर और कई दृश्यों को क्रम से बाहर आगे पीछे करके रोचकता बनाए रखी है.
सेट डिजाईन और कास्ट्यूमस पर विशेष ध्यान दिया गया है , अक्की नरूला और मनीष मल्होत्रा के द्वारा डिजाइन किये गए, रनबीर के कपडे बिलकुल अलग तरीके के हैं और पात्र के चरित्र के साथ मेल खाते हैं. नर्गिस के कश्मीर में पहने जाने वालो कपड़ो पर भी विशेष ध्यान दिया गया है.
ये फिल्म रनबीर कपूर के इर्दगिर्द ही घूमती है. रनबीर का ये अभी तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है. पहली बार रनबीर के चहरे पर बदलते हुए कई सारे भाव दिखेंगे जो हमने रनबीर की पिछली फिल्मों में नहीं देखा है. एक आम लड़के की मासूमियत, राकस्टार का अंदाज़, एक कुंठित सफल कलाकार सब कुछ रनबीर ने बखूबी किया है, निश्चित ही वो इस साल कई अवार्ड्स के लिए नामांकित होंगे. नरगिस फाकरी के लिए दो बातों में कोई दो राय नहीं हो सकती, पहली ये की वे खूबसूरत हैं और दूसरी ये की उन्हें अभिनय की द्रष्टि से अभी बहुत मेहनत करनी है. गनीमत है की उनकी आवाज़ को डब किया गया है. कुमुद मिश्रा थियेटर के जाने माने अभिनेता हैं और उन्होंने अच्छा काम किया है . पियूष मिश्रा की उपस्थिति दर्शकों को हमेशा ही हसाती है एक विशेष द्रश्य में उन्होंने कमाल किया है . शम्मी कपूर को एक बार फिर बड़े परदे पर देखना सुखद और भावुक है .
फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पहलू संगीत है क्युकी ये एक राकस्टार की प्रेम-कहानी है, सो संगीत का महत्व दुगना हो जाता है.  यहाँ फिल्म की समीक्षा के साथ फिल्म के संगीत की समीक्षा करना इसके संगीत के साथ अन्याय करना होगा. इसकी समीक्षा अलग से की जानी चाहिए. यहाँ संक्षेप में ये कहा जा सकता है की, ऐ.आर. रहमान का हालीवुड फिल्मों में व्यस्तता भारतीय संगीत प्रेमियों के लिए चिंता का विषय बनती जा रही थी, लेकिन रहमान ने ना सिर्फ एक बेहतरीन संगीत दिया है बल्कि वो फिल्म की भावना के साथ भी पूरी तरह जाता है. बहुत दिनों बाद आप किसी फिल्म के सभी गानों सुनना चाहेंगे. मोहित चौहान की आवाज़ उनको प्रतीक्षित सम्मान दिलाएगी . इरशाद कामिल का लिखा गाना “ साड्डा हक” फिल्म में बहुत खूबी से फिल्माया गया है. रहमान का संगीत लोकप्रिय होने में थोडा वक्त लेता है और जल्दी ही अपनी ऊंचाईयों को छुएगा.
राकस्टार, प्रेम कहानी में उतनी सशक्त नहीं है जीतनी एक कलाकार की कहानी में. फिल्म को सभी वर्गों द्वारा प्रसंशा मिलना मुश्किल ही होगा, हाँ इम्तिआज़ अली का निर्देशन, रनबीर का अभिनए और फिल्म का एक बड़े कैनवास पर बना होना आप को सिनेमा घर तक ले जाने के लिए काफी है .

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Wednesday, December 28, 2011

A stunning color photograph of an Indian actress

A stunning color photograph of an Indian actress

A stunning color photograph of an Indian actress in 31 Dec 1951 issue of LIFE about Asia.


The actress was Begum Para. Film journals of late 40s and early 50s were full of 'bust' talk about her. She was supposed to be 'sex-symbol' of her era. The caption to that photograph (above) mentioned how she 'drew favorable comparisons with Jane Russell' of The Outlaw fame.


 
Para was 24 at that time. Born in around 1927. The photograph did not directly give out her name, it was simply titled 'Movie Queens'

Amitabh Bachchan and Muhammad Ali

starring Amitabh Bachchan and Muhammad Ali




"Muhammad Ali, celebrated heavyweight boxer, has been offered the role of an African revolitionary in the film 'Zameen', written by Harbance Kumar and to be produced by Prakash Mehra. The film's hero Amitabh Bachchan, the producer, and Amitabh'a younger brother can be seen in photograph at Muhammad Ali's home in Los Angles."
From Debonair, December 1979

DON 2



सिंघासन का हिलना और बादशाहत का खतम हो जाना दो अलग अलग बातें हैं, इस लिहाज़ से शाहरुख खान आज भी हिंदी फ़िल्म्स के बादशाह हैं लेकिन उनको एक बात समझनी होगी की बादशाहत को कायम रखने के लिए सिंघासन को मज़बूत किये जाने का वक्त आ चुका है. 

फरहान अख्तर द्वारा ५ साल के बाद निर्देशित फिल्म डान प्रदर्शित हो चुकी है. जिसमे
डान की (शाहरुख खान) नज़र अब यूरोप में अपनी धाक जमाने की है और इस सिलसिले में वो जर्मनी का एक बैंक लूटना चाहता हैं. लेकिन यूरोपीय माफिया के लोग डान को जान से मारना चाहते हैं, दूसरी तरफ इंटरपोल भी डान के पीछे है. ऐसे में डान अपने पुराने दुश्मन वर्धान (बोमन इरानी) की मदद चाहता है. इस लिए डान खुद को गिरफ्तार करवा मलेशिया की जेल में पहुँचता है जहा वर्धान पहले से अपनी सजा भुगत रहा है. यहाँ से दोनों जेल तोड़ कर भाग जर्मनी के एक बैंक को लूटने की योजना बनाते हैं जिसमे कुछ अन्य अपराधी भी उनकी सहायता करते हैं. इनके बनाए प्लान का क्या होता है और बाद में खुलने वाले राज़ क्या हैं ये देखना दिलचस्प हो सकता है. जीहाँ कहानी यही है.

फिल्म की कहानी और पटकथा फरहान अख्तर, अमीत मेहता और अमरीश शाह द्वारा लिखी गई है. डान जैसी किसी फिल्म के दूसरे पार्ट लिए ऐसी लचर कहानी का चुनाव बिलकुल ही उपयुक्त नहीं था. पटकथा फिल्म के पहले हिस्से में कई जगह ढीली और उबाऊ है. फिल्म एक “मास्टर-प्लान” को अंजाम देने की कहानी है लेकिन उसके शुरू होते होते ही फिल्म का एक बड़ा हिस्सा खतम हो चुका होता है. लेखक किसी भी योजना में किसी तरह का कोई रोमांच पैदा नहीं कर सके. हालांकि की एक नकारात्मक पात्र को नायक बनाए जाने की अपनी सीमाएं होती हैं, लेकिन अचानक पात्र को सहानुभूति दिए जाने का प्रयास और जबरदस्ती “ह्रदय-परिवर्तन” जैसी हर कोशिश काफी हास्यास्पद लगती है. फिल्म की नायिका रोमा (प्रियंका चोपरा) और डान के बीच की “केमेस्ट्री” को दिखाने का हर प्रयास काफी हास्यास्प्रद लगता है. नायक की भूमिका कितना बड़ा कलाकार क्यों न कर रहा हो, उसके पात्र को दमदार बनाये जाने के लिए बाकी पात्रों में जान होना भी जरूरी है. जिसका यहाँ पूरी तरह आभाव है.
जिस तरह डान की नज़र यूरोप पर है ठीक उसी तरह शाहरुख और निर्माताओं की नज़र भी योरोप ओर विदेशी बाजारों पर ही है, इसीलिए डान के पीछे चाहे कितने ही मुल्को की पुलिस क्यों ना लगी हो वो घूमता बहुत है और  फिल्म के खतम होने के पहले तक हर खतरे से बाहर है, जैसे हर किसी ने डान को ना मारने की कसम सी खा राखी हो. फिल्म के बाद में खुलने वाले राज़ जरूर आप को चौंका सकते हैं. फिल्म एक बड़े कैनवास पर बनी है जो कई बार आपको याद दिलाती रहेगी की फरहान अख्तर ने ये बड़ा “कैनवास” कहा से लिया है. 
फरहान अख्तर ने दिल चाहता है जैसी फिल्म बनाने के बाद जब अभिनय में खुद को अजमाने का सोचा तो सबको लगा था की कही एक अच्छा निर्देशक ना खो जाए. अभिनय में अपने जौहर दिखाने के बाद डान-२ में उनकी बतौर निर्देशक वापसी इस बात का अहसास दिलाती है की निर्देशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कही न कही प्रभावित हुई है. फरहान के लिए शायद शाहरुख की उपस्थिति ही उनको इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा रही होगी. किसी भी अच्छी (एक्शन-थ्रिलर) फिल्म के लिए बारीकियों को समझाना जरूरी होता है ना की दर्शकों को भ्रमित कर अपना काम निकालना. कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ भी ना समझ में आने वाला डाटा का आना जाना और कीबोर्ड पर जोर जोर से इंटर मारना तो मानो हर समस्या का हल हो गया है. वैसे तो डान सारी दुनिया में यु आ जा रहा है जैसे उसने काफी यातायात के नियम भी ना तोड़े हों और अचानक उसको मास्क पहने की जरूरत पड़ जाती है. या फिर निर्देशक ये बताना चाह रहे हों की सिर्फ हमारी पुलिस ही नहीं जर्मनी की पुलिस भी उतनी ही निकम्मी है. फरहान अख्तर ने इतना सारा काम अपने हांथो में ले लिया की शायद वो किसी भी काम से न्याय नहीं कर पाए, उनके द्वारा लिखे गए संवाद भी औसत दर्जे के हैं. फिल्म में डान का पात्र और ज्यादा मजेदार एवं दमदार संवाद की मांग करता है जो फिल्म में कही नहीं है.
फिल्म का “बैगराउंड” संगीत अच्छा है लेकिन फिल्म संगीत में इस बार शंकर-अहसान-लॉय मात खा गए. औसत दर्जे का संगीत और कही कही उबाऊ पटकथा आप को पहली बार एक “आईटम-नंबर” का कमी महसूस कराएगा.
जेसन वेस्ट का सिनेमेटोग्राफी काफी अव्वल दर्जे की है. “कार चेस” जैसे द्रश्य हालांकि आप कई बार देख चुके है लेकिन जेसन ने अपना काम ऐसे कई दृश्यों में बखूबी निभाया है. रितेश सोनी और आनंद सुबया ने फिल्म की एडिटिंग काफी अच्छी की है, हालांकि तेज़ी से घटना क्रम बदल रही फिल्मों की एडिटिंग पूरी तरह सॉफ्टवेर पर निर्धारित हो गयी है. “एक्शन-कांसेप्ट” द्वारा किये गए एक्शन द्रश्य काफी अच्छे हैं.
अभिनय की द्रष्टि से प्रियंका चोपरा डान-१ के मुकाबले इस बार बहुत ही अनुपयुक्त लगती है, उनके पास ऐसे ज्यादा द्रश्य नहीं थे जिसमे वे कुछ प्रभाव छोड़ पाती. लारा दत्ता को कम काम मिले जाने की आशंका थी लेकिन उन्होंने इस आशंका को कही पीछे छोड़ दिया और वे तीन चार दृश्यों में ही देखी गयी. बोमन इरानी ने अच्छा काम किया है और एक द्रश्य में वे हास्य पैदा करने में सफल रहे है. अली खान और नवाब शाह ने अपने काम के साथ न्याय किया है. कुनाल कपूर भी अपने काम में जंचते हैं. ओम पुरी को डान -१ की वजह से फिल्म में रखा जाना शायद मजबूरी रही हो.
अब बात उनकी जिसकी वजह से ये फिल्म बनाए जाने का सोचा गया होगा जीहाँ शाहरुख खान. एक लंबे अरसे के बाद के शाहरुख खान को गले में स्वेटर बांधे और डिजायनर सूट्स के बाहर देखना अच्छा लगा. शाहरुख खान का एक एक्शन हीरो का “गेटअप” काफी अच्छा है. शाहरुख ने दिखाया की वो “लव और लड़ाई” दोनों में एक सामान सक्षम हैं. फिल्म में संवादों का अच्छा न होना और किसी दमदार पात्र का सामने ना होना उनके अभिनय में वो रंग नहीं भर पाया जो हो सकता था. शाहरुख खान ने उनको फिर से एक एक्शन फिल्म में देखे जाने की इच्छा को जगा दिया है.

शाहरुख की उपस्थिति और उनका नया लुक दर्शकों को जरूर सिनेमा घरों तक खींच के लाएगा और यही निर्माता चाहते भी होंगे. फिल्म के प्रदर्शन का समय भी उपयुक्त है इसलिए फिल्म की सफलता तो लगभग निश्चित ही है. उम्मीद है शाहरुख की अगली एक्शन फिल्म इससे बेहतर होगी.

Thursday, December 8, 2011

“द डर्टी पिक्चर”

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फिल्म निर्माताओं का एक वर्ग आज भी इस बात पर पूरी तरह विश्वास करता है की इन्टरटेनमेंट के सिर्फ तीन ही मतलब हो सकते हैं - सेक्स सेक्स और सिर्फ सेक्स और उनका मानना है की अगर जेब में पैसे ठूसने हों तो कहानी में सेक्स ठूसने के बजाये अब सेक्स में कहानी ठूसो  इस लिहाज़ से सिल्क स्मिता की कहानी का चुनाव न सिर्फ एक बेहतरीन व्यावसायिक कदम है बल्कि ये फिल्म निर्माताओं को पूरी छूट देता है की फिल्म की हीरोइन को दिखाने के लिए उसके चहरे को दूसरे नंबर पर रखा जाए 
बालाजी फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत द डर्टी पिक्चर एक ऐसी लड़की रेशमा ( विद्या बालन ) की कहानी है जो गाँव से भागकर मद्रास आई है और एक फिल्म स्टार बनाना चाहती है  आगे बढ़ने की चाह में वो कुछ भी करने के लिए तैयार है, और आमतौर पर जैसा होता है सब कुछ करने के बाद भी उसके हाँथ जो आता है वो है फिल्मों में उत्तेज़क डांस करना जो फिल्म की सफलता का एक बेहतरीन मसाला है  रेशमा को सुपरस्टार सूर्या (नसीरुद्दीन शाह) के साथ समझौता करने के एवज में उसके साथ काम करने का मौका मिलता है और वो सूर्या द्वारा बराबर इस्तेमाल हो रही है  और अब रेशमा का नाम है सिल्क  अब्राहिम (इमरान हाशमी) एक निर्देशक है जो विवेकपूर्ण फिल्मे बनाता है इसलिए फिल्मो के घटिया मसालों से नफरत भी करता है  रमाकांत (तुषार कपूर) जो सूर्या का भाई है वो पेशे से एक फिल्म लेखक है इधर सिल्क का सूर्या द्वारा खुद को इस्तेमाल किये जाने का सच सामने आने के बाद वो सूर्या के भाई रमाकांत से इश्क की पींगे बढाने लगती है  एक ऐसा वक्त आता है जहाँ सिल्क ना सिर्फ  रमाकांत द्वारा भी ठुकरा दी जाती है बल्कि इस सदमे के फलस्वरूप उसका शराब में डूबा रहना अब उसको काम से भी दूर ले जाता है  कुछ घटनाक्रमों के बाद अब्राहिम, सिल्क की ओर देखता है जहा सिल्क के पास न अब रूप बचा है और न रुपया  अब्राहिम और सिल्क आप को फिल्म के समापन पर ले जाते हैं 
रजत अरोरा द्वारा लिखी गयी पटकथा एकदम उद्देश्यहीन तरीके से आगे बढती है और ज्यादातर जगहों पर उबाऊ है फिल्म में रोचकता बनाये रखने के लिए घटिया संवादों का सहारा लिया गया है फिल्म तथाकथित तौर पर दक्षिण भारतीय फिल्मो की अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है लेकिन जिस तरीके से सिल्क स्मिता के चरित्र को लिखा और दिखाया गया है, उसको देखकर ये समझना मुश्किल है की आखिर ये कहानी किसी भी निर्माता को फिल्म बनाने के लिए प्रेरित क्यों कर सकती है ना तो सिल्क का विद्रोही स्वभाव उभर कर आता है न ही उसके फ़िल्मी चकाचौंध के पीछे की असली जिंदगी का दर्द दिखता है न ही दर्शकों को पात्र से सहानभूति होती है फिल्म के एक संवाद में अब्राहिम, सिल्क से कहता है की “ तुम्हारे लिए आगे की ४ लाईन हैं बाकी की ४० लाईन मेरे लिए हैं”  निर्माता निर्देशक ने आगे की उन ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और पूरी कोशिश की है की आगे की ४ लाइन को पीछे की ४० लाईन तक कैसे बढ़ाया जा सकता है, जिसमे वे सफल भी रहे हैं हालांकि कुछ रीढविहीन फिल्म आलोचक इस बात पर विशेष जोर दे रहे हीं की फिल्म परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है लेकिन आप परिवार के साथ देखने के पहले ये सुनिश्चित कर ले की आप के परिवार और इन समीक्षकों के परिवार में क्या फर्क है 
 फिल्म में अभिनय की द्रष्टि से कुछ उल्लेखनीय बाते जरूर है, जैसे की इस फिल्म को देखने की सिर्फ और सिर्फ एक वजह हो सकती है वो है विद्या बालन का इस पात्र को करने के लिए हाँ बोलना भारतीय सिनेमा में कितनी ऐसी अभिनेत्रियां होंगी जिन्होंने परदे पर खुद को सांवली, मोटी, उत्तेजक और कामुक या एक ढले हुए चहरे वाली अभिनेत्री दिखाने के लिए हाँ की होगी, और ऐसा करने के लिए मेहनत करना तो दूर की बात है  विद्या को न सिर्फ इस अभिनय के लिए बल्कि ऐसा करने की हिम्मत के लिए भी प्रशंशा मिलनी चाहिए, और निसंदेह वे इस साल के कई पुरस्कारों से नवाजी जा सकती है इमरान हाशमी पर लगे फ़िल्मी ठप्पे के विपरीत उन्हाने ने ऐसे निर्देशक का रोल किया है जो फिल्मो में सेक्स और हिंसा को पसंद नहीं करता है जिसमे वो पूरी तरह जंचते है एक बात यहाँ कहना जरूरी है की नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मी जीवन पर नज़र डाली जाए तो इस रोल के लिए उनकी प्रसंशा नहीं की जा सकती हालांकि उन्होंने अपने काम को बेहतर ढंग से किया है लेकिन ये आपको सोचने पर मजबूर कर सकता है की क्या अब इन बड़े और महान अभिनेताओं को ऐसे रोल भी आकर्षित कर सकते हैं ?
तुषार कपूर ठीक हैं   
विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मुताबिक ही है  “उह्ह ला ला” चालू गाना है जो कुछ दिन अच्छा लगेगा, “मेरा इश्क सूफियाना” हालाँकि कर्णप्रिय है लेकिन उसके आते आते आप अपना संय्यम खो चुके होते हैं  विजय एंथोनी द्वारा संगीतबद्ध गाना “नाक मुक्का“ जो बैकग्राउंड में बजाता है कुछ उम्मीद जगा सके उसके पहले खतम हो जाता  है   हालाँकि फिल्म के दोनों ही गाने फिल्माए अच्छे से गए है फिल्म की लम्बाई कम हो सकती थी, कई जगहों पर फिल्म बहुत धीरे आगे बढती है लेकिन उसका ठीकरा एडिटर के सर नहीं फोड़ा जा सकता प्रिया सुहास ने ८० के दशक का लुक अच्छा दिया है हालांकि उन्हें ज्यादातर फिल्मो के सेट ही दिखाने थे जो अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता की मांग नहीं करते 
फिल्म निर्देशक मिलन लुथरिया ने हमेशा ही सिनेमा की आगे की ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है  और इस बात के लिए वो हमेशा ही चालू दर्जे के और जरूरत से ज्यादा “डायलागबाजी” ( काछे धागे, ... मुंबई ) पर बहुत यकीन करते हैं  लेकिन इस फिल्म की विषयवस्तु ने उन्हें और भी मौक़ा दिया है की वे विशेष दर्शक वर्ग के लिए कुछ और भी “विशेष” दे पाए  और उन्होंने अपने दिल की बात अब्राहिम के जरिये कही भी है की सफल निर्देशक विवेकपूर्ण फिल्मे बनाने वाला नहीं होता बल्कि वो होता है जो किसी भी स्तर तक जा के अपनी फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल करा सके  
अंततः ये कहा जा सकता है की जिस तरह से आज सेक्स और हिंसा को फ़िल्मी परदे पर मान्यता दिलाई जा रही है सिल्क स्मिता को अपने ८० के दशक में फिल्मो में आने का अफ़सोस होगा अगर वो आज होती तो शायद उन्हें आत्महत्या ना करनी पड़ती
“द डर्टी पिक्चर” सिल्क स्मिता द्वारा अभिनीत B-ग्रेड फिल्मो की तरह ही एक फिल्म है जिसे सेंसर बोर्ड और निर्माता दोनों ने ही A-ग्रेड दिया है, और इसमे सिल्क १० मिनिट के लिए नहीं बल्कि २ घंटे के लिए हैं 

** Star



रा-वन


रा-वन


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एक बार मैंने आमिर खान से पूछा हम सिनेमा की हर विधा में सक्षम होने के बावजूद भी अच्छी साई-फाई फिल्मे क्यों नहीं बना पाते है? आमिर का जवाब था क्योंकि हम लेखन में निवेश नहीं करते हैं| लेकिन लेखन में 5 साल लगाने के दावों के साथ, आज भारत की सबसे महंगी साई-फाई फिल्म बन कर प्रदर्शित हो चुकी है| 
इरोस इंटरनेशनल और रेड चिली की ये फिल्म शेखर सुब्रमनियम (शाहरुख ख़ान) की कहानी है जो लन्दन में अपनी पत्नी सोनिया (करीना कपूर) और बेटे प्रतीक (अरमान वर्मा) के साथ रहता और एक वीडियो गेम की कंपनी में काम करता है| वो अपने बेटे की मांग और उसे खुश करने के द्रष्टि से एक ऐसा गेम तैयार करता है जिसमे खलनायक उसके हीरो से ज्यादा ताकतवर है, इस सोच के साथ की सत्य की ही जीत होती है| समस्या तब खड़ी होती है जब गेम का विलेन रा-वन सुब्रमनियम के बेटे को मारने के लिए वर्चुअल रियल्टी से बाहर इंसानों की दुनिया में आ जाता है| अब प्रतीक को बचाने की जिम्मेदारी गेम के हीरो जी-वन की है, और वो भी वर्चुअल रिअलिटी से बाहर हमारी दुनिया में आ चुका है|

फिल्म के शुरू होते ही जो पहला ख्याल आप को आयेगा वो ये की यह एक आकर्षक दृश्यों वाली फिल्म है| विशेष प्रभाव और ग्राफिक्स आप को बांधे रखेंगे| और यही एक सफल फिल्म होने की निशानी है | रा-वन का प्रतीक और सोनिया का पीछा करना, जी-वन का पहली बार परदे पर आना, ये कुछ द्रश्य काफी आकर्षक हैं| ट्रेन में फिल्माया गया द्रश्य के लिए 26 कैमरों का प्रयोग किया गया, जो काबीले तारीफ़ है| सी एस टी स्टेशन का टूटना जैसे द्रश्य आप को जरूर हैरतअंगेज लगेंगे| रा-वन और जी-वन की कॉस्ट्यूम आकर्षक हैं| जी-वन का कॉस्ट्यूम दुनिया भर के “सुपर हिरोस” में सबसे अच्छे कॉस्ट्यूमस में से एक होगा||
फिल्म की जो सबसे अच्छी बात है वो है, सत्य की असत्य पर जीत (जो एक नियम का रूप ले चुका हैं) के सन्देश का एक और अनूठा उदाहरण| हम कम्पयूटर के अंदर तो किसी को भी जिता या हरा सकते हैं लेकिन अगर वर्चुअल दुनिया के लोग भी हमारी दुनिया में आए, तो ये नियम उन पर भी लागू होगा|

लेकिन अब दूसरा सवाल, जब आप इस फिल्म के प्रोमो में ये पाते हैं की ये 150 करोड के लागत से बनी भारत की सबसे महँगी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्टंट्स और “स्पेशल इफ्फेक्ट्स” वाली फिल्म है, तब बारीकियों पर ध्यान दिया जाना लाज़मी हो जाता है|

किसी भी सुपर हीरो या साई-फाई फिल्म की खूबसूरती, निर्देशक के कल्पना की उड़ान की ऊँचाई और उड़ान के लिए दी गयी वजह की गहराई पर निर्भर करती है| निर्देशक अनुभव सिन्हा यहाँ दोनों ही मोर्चे पर असफल रहे हैं| किसी भी सुपर हीरो या साई-फाई फिल्म की खूबसूरती, निर्देशक के कल्पना की उड़ान की ऊँचाई और उड़ान के लिए दी गयी वजह की गहराई पर निर्भर करती है| निर्देशक अनुभव सिन्हा यहाँ दोनों ही मोर्चे पर असफल रहे हैं| निर्देशक ने कल्पना की जीतनी भी उड़ान की है उसको स्थापित करने के लिए उनके दिए गए कारण पूरी तरह समझ के परे हैं ! शहाना गोस्वामी के माध्यम से फिल्म के शुरू में दिया गया कारण सिर्फ दर्शकों को ये बताता है की, वो जो भी देखने जा रहे हैं उसका कारण उन्हें बता दिया गया है, अलबत्ता दिए गए कारण और गेम के पात्रों का हमारी दुनिया में बाहर आ जाने के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है|
निर्देशक और लेखक ने रिसर्च के नाम पर ज्यादा समय हालीवुड की फिल्मो को देखने में बिताया ऐसा ही लगता है ! समय समय पर आप टर्मिनेटर, ट्रॉन लिगेसी, स्पाइडरमैन जैसी फिल्मों की झलक देख सकते हैं, जिसकी शुरुआत फिल्म के पोस्टर से ही हो जाती है. (जो की बैटमैन से लिया गया है)
सुपर हीरो की फ़िल्में बच्चो को ही आकर्षित करने के हिसाब से बनाई जाती है, और ये है भी| इस लिहाज़ से अनुभव शर्मा और शाहरुख को समझना होगा की फिल्म के संवाद और द्रश्य कही कही अश्लील होने की हद्द तक खराब हैं, हाँ वो अलग बात है की शाहरुख का लक्ष्य अब मुख्यतः प्रवासी भारतीय ही होते हैं| भावनात्मक दृश्यों के बावजूद, सुपर हीरो से दर्शकों का कोई भी भावनात्मक जुड़ाव न होना एक बड़ी कमजोरी है| एक बेहतर साई-फाई फिल्म बनाने के लिए जरूरी तीनों बातें, देश में मौजूद एक बड़ा दर्शक वर्ग, देश में ही मौजूद टेक्नीशियन और बड़े बजट की सुलभता के बाद, इससे कही बेहतर की उम्मीद की जानी चाहिए| मसलन इससे कही कम लागत में बनी रोबोट से बेहतर रा-वन में ज्यादा कुछ नहीं|
फिल्म का सबसे लोकप्रिय गाना “छम्मकछल्लो” के लिए आप को थोडा इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन ये इंतज़ार आप को अखरेगा नहीं| गाने को बहुत अच्छा फिल्माया गया है| शोरशराबे और मारधाड के बीच “दिलदारा दिलदारा” गीत भी कानो को सुकून देगा|

अभिनय की द्रष्टि से कलाकार सहाना गोस्वामी, दलीप ताहिल, सतीश साह, टॉम वू तथा कुछ अन्य कलाकारों के लिया इतना कहना काफी होगा की ये फिल्म में हैं| रा-वन की भूमिका में अर्जुन रामपाल काफी जंचते हैं| अर्जुन रामपाल को अपने अंदर छुपा एक जबरदस्त खलनायक को पहचानना होगा, इसमे वे कमाल कर सकते हैं| करीना ने अपना काम बखूबी निभाया है हालाँकि “जब वी मेट” में करीना का गाली देना और इस फिल्म में गालियों में शोध करने में जमीन आसमान का फरक है| बेटे की भूमिका में अरमान वर्मा ने काफी अच्छा काम किया है| पहली फिल्म होने के बावजूद उनके चेहरे पर एक आत्मविश्वास है| 
ये फिल्म पूरी और पूरी तरह शाहरुख खान के कंधो पर टिकी है| शाहरुख खान वो करिश्माई शख्शियत हैं जिनकी उपस्थिति ही सफलता की गारंटी है| लेकिन रुकि| शायद यही करिश्मा ही ‘अभिनेता शाहरुख’ की सबसे बड़ी कमजोरी भी है| वो किसी भी किरदार में हो सबसे पहले वो शाहरुख ही लगते हैं| जिन दो फिल्मो में शाहरुख ने खुद से अलग दिखने का प्रयास किया वे थी “रब ने बना दी जोड़ी” और “माय नेम इस खान”| अफ़सोस की उनका न सिर्फ पहला किरदार “रब ने बना दी जोड़ी” का सुरी ही लगता है बल्कि जी-वन बने शाहरुख कही कही तो “माय नाम इस खान” के रिजवान लगने लगते हैं|

अपने स्तर की ये पहली हिंदी फिल्म है, और इस पर की गयी मेहनत के लिए इस फिल्म को एक बार देखा जाना जरूरी है|फिल्म की सफलता की मुख्य वजह शाहरुख ही रहेंगे, तकनीक और विशेष प्रभाव का नंबर दूसरा ही होगा| 
तो बात फिर वही आकर अटकती है कि 150 करोड की लागत में लेखन पर किया गया निवेश कितना है? क्या हमें आज भी एक अच्छी साई-फाई फिल्म को बनाने के लिए और सफर तय करना होगा?

शतरंज के खिलाड़ी


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शतरंज के खिलाड़ी सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित पहली गैर बंगाली भाषा की फिल्म थी ! फिल्म 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से एक साल पहले की प्रष्ठभूमि पर है ! जब ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी उपनिवेशवाद नीति के तहत विभिन्न भारतीय साम्राज्य और राजाओं को सीधे अपने अधीन कर रही थी ! अवध (लखनऊ) का साम्राज्य सबसे आखिर में कंपनी के अधीन आने वाले राज्यों में से एक था, और अंग्रेजो की सेना जो उस वक्त अफगानिस्तान और नेपाल में युद्ध लड़ रही थी उसके लिए धन का स्रोत था !
फिल्म मुंशी प्रेमचंद की एक लघुकथा पर आधारित है ! अवध के तात्कालीन बादशाह वाजिद अली शाह (अमजद खान) है जिसे कम्पनी राजगद्दी से हटाने की योजना बना रही है, और बादशाह प्रशासन से दूर अपनी कला के प्रदर्शन और विलासता में डूबा हुआ है ! कम्पनी इस सत्ता परिवर्तन के लिए एक वैध रास्ता अपनाना चाहती है जिसके लिए वो एक नया सन्धि पत्र तैयार करती है जिस पर उसे बादशाह के दस्तखत चाहिए!
इन सभी राजनैतिक उथल-पुथल के बीच नवाब के अधीन बैठे दो जागीरदार मिर्ज़ा सज्जाद अली (संजीव कुमार) और मिर्ज़ा रोशन अली (सईद जाफरी) जिनके ऊपर अवध की रक्षा का जिम्मा भी है, अपने अंतहीन शतरंज के खेल में लगे हुए हैं| यहाँ तक की खेल की वजह से जहा मिर्ज़ा सज्जाद अली अपनी पत्नी खुर्शीद (शबाना आज़मी) से बेपरवाह हैं वही मिर्ज़ा रोशन अली अपनी पत्नी नफीसा (फरीदा ज़लाल) के अपने ही दूर के रिश्तेदार अकील (फारुख शेख) के प्रति आकर्षित होने को नज़र अंदाज़ किये हुए हैं !
दोनों ही खिलाड़ी इस बात से अनजान है की अंग्रेज न सिर्फ शतरंज भी दूसरे तरीके से खेलते हैं बल्कि उनकी राजनीति चालें भी अलग अलग हैं| अंग्रेज रेसिडेंट जेम्स ओउट्राम (रिचर्ड एटनबरो) बड़ी चतुराई से बादशाह के कला प्रेम को विलासता का रूप देकर उसे अयोग्य साबित करता है और उसे हटाये जाने के लिए एक नयी संधि बनाता है !
दूसरी तरफ अहंकार से भरे हुए दोनों शतरंज के खिलाड़ी घरवालों की वजह से अपने खेल में आ रहे व्यवधान से तंग आकर और अवध की रक्षा के लिए कदम उठाने की संभावना से भाग कर लखनऊ से दूर एक गाँव में जाकर खेलने की योजना बनाते है इस सच को नज़रंदाज़ करके कि अंग्रेजी सेना कभी अवध पर अपनी सत्ता जमा सकती है !
सत्यजित रे द्वारा निर्देशित यह सबसे महंगी फिल्म थी जिसमे हिंदी फिल्म जगत के कई बड़े अभिनेता और हालीवुड के रिचर्ड एटनबरो ने काम किया| किसी भी एतिहासिक फिल्म की पटकथा की खूबी इस बात पर निर्भर करती है कि तथ्यों को तोडा मरोड़ा ना जाए और ये बात तब और मुश्किल हो जाती है जब उन्ही तथ्यों के साथ निर्देशक आम धारणा के विपरीत दूसरे पहलू को भी सामने रख पाने में सफल हो| और इस महान निर्देशक की ये खूबी रही की उनकी ज्यादातर फिल्मों में कोई विलेन नहीं होता बल्कि अच्छे और बुरे दोनों ही पात्रों को अपनी बात कहने का मौका मिलता है| नवाब वाजिद अली शाह के लिए आम धारणा ये है की वो एक सिर्फ विलासी और अयोग्य राजा था, लेकिन इस फिल्म में भी निर्देशक तथ्यों को बिना तोड़ेमरोड़े, नवाब वाजिद अली शाह को अपनी बात कहने का मौका देता है और आप नवाब की बातो से इत्तेफाक भी रखेंगे| दूसरी तरफ अंग्रेज रेसिडेंट भी अपनी जगह सही है और वो किसी भी राजा, जो दरबार से ज्यादा कला में रूचि रखता हो, को राज गद्दी से हटाना, ब्रिटिश राज के प्रति अपना कर्तव्य समझता है| वही दोनों शतरंज के खिलाड़ियों की कहानी प्रतीकात्मक होकर भी मुख्य कहानी की तरह आगे बढती है!
निर्देशक ने उस वक्त के उत्तरदायी व्यक्तियों के उदासीन और विलासी होना दोनों खिलाड़ियों के माध्यम से ही दिखाया है ! दोनों ही जागीरदारों के बीच के संवाद आप को तात्कालीन राजनैतिक स्तिथि से अवगत कराते हैं !
दोनों ही जागीरदारो के बीच के संवादों में अच्छा व्यंग्य है ! फिल्म के संवाद अंग्रेजी में खुद सत्यजित रे ने और उर्दू में शमा जैदी और जावेद सिद्दीकी ने लिखे हैं! जागीरदार और उनके मुंशी के बीच होने वाले संवाद को निहायत ही खूबसूरती से पिरोया गया है जो तात्कालीन अवस्था को ज्यों का त्यों बयान करता है!
मुंशी, अंग्रेजी और हिन्दुस्तानी वज़ह के शतरंज के बीच के अन्तर को समझाते हुए कहता है :-
1) “प्यादा” पहली चाल में दो घर चल सकता है और मुखालिफ सिरे पर पहुँच जाए तो “मलिका” बन जाता है |
2) अंग्रेजी वजह से फायदा है की खेल झटपट ख़त्म हो जाता है !
बादशाह की राज्य के प्रति उदासीनाता और कला के प्रति प्रेम एक संवाद से ही जाहिर है की “सिर्फ शायरी और मोंसिकी ही मर्द के आँखों में आंसू ला सकते हैं”
अंग्रेजी के संवाद कुछ जगहों पर लंबे समय तक हैं जो हिंदी भाषी दर्शकों को थोडा बेचैन कर सकते हैं|
फिल्म का संगीत सत्यजीत रे ने ही दिया है! फिल्म में संगीत के नाम पर एक ठुमरी है “कान्हा मैं तोसे हारी “ जो न सिर्फ कर्णप्रिय है बल्कि दर्शनीय भी है| जिसे बिरजू महाराज ने स्वयं गाया भी है और नृत्य निर्देशित भी किया है| फिल्म का कला निर्देशन और वेशभूषा काफी सटीक है और ये आप को 1856 में ले जाने में सफल होते हैं ! सिनेमेटोग्राफर सौमेंदु राय ने अच्छा काम किया है और लखनऊ की गलियों और महलों को बखूबी फिल्माया है| दुलाल दत्ता द्वारा की गयी एडिटिंग विशेष ध्यान देने योग्य है| छोटे छोटे दृश्यों को बड़ी खूबी से बीच बीच में डाला गया है| फिल्म में किसी भी नाटकीय पार्श्व संगीत के लिए कोई जगह नहीं है|
फिल्म के सभी कलाकारों संजीव कुमार, सईद जाफरी रिचर्ड एटनबरो शबाना आज़मी तथा अन्य सभी ने अच्छा अभिनय किया लेकिन जिन दो लोगो के अभिनय की बात करनी चाहिए वे हैं अमज़द खान एवं विक्टर बनर्जी ! अमजद खान ने खुद को पात्र में ढालने के लिए अपने हाव भाव का बेहद उम्दा इस्तेमाल किया है वही वे जोर से बोलते हुए कभी कभी अमजद खान ही लगते हैं, विक्टर बनर्जी ने अपनी छोटी सी भूमिका में जान डाली है विशेषतः अपनी संवाद अदायगी में, मुख्यतः बंगाली भाषी होने के बावजूद वे जिस ढंग से उर्दू का उच्चारण करते है वो काबिल-इ-तारीफ है|
फ़िल्म को तीन फिल्मफेयर अवार्ड मिले थे जिसमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी शामिल था ।
और हाँ फिल्म के सूत्रधार की आवाज़ अमिताभ बच्चन की है !



निर्देशक:
सत्यजित रे
निर्माता:
सुरेश जिंदल
लेखक:
मुंशी प्रेमचंद
कलाकार
अमजद खान, शबाना आज़मी, फारुख शेख, संजीव कुमार,  सईद जाफरी
संगीत:
सत्यजित रे
फिल्म रिलीज़:
10 मार्च, 1977

गरम हवा


गरम हवा

गरम हवा




















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निर्देशक            :      एम्. एस. सथ्यु
निर्माता             :      इशान आर्य , एम्. एस. सथ्यु एवं अबू सिवनी
लेखक              :      कैफी आज़मी , शमा जैदी
कहानी              :      इस्मत चुगताई
कलाकार            :      बलराज साहनी, फारुख शेख, गीता काक, शौकत
                            आज़मी, ए. के. हंगल, दीनानाथ जुत्सी
संगीत              :      बहादुर खान वारसी  
कैमरा              :      इशान आर्य
प्रदर्शन तिथि      :      १९७३
अवधि              :      १४६ मिनट
भाषा               :      हिंदी और उर्दू 

हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की कतार में गरम हवा सबसे कम लागत में बनी फिल्मों में से एक होगी । १९७३ में प्रदर्शित इस फिल्म की लागत ८ लाख रूपए के आस पास थी । यह पहली फिल्म थी जिसने विभाजन के विनाश के बाद फैली हुई  एक अजीब सी शांति के भीतर जा कर जांच पड़ताल की । एम. एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित यह फिल्म भारतीय सिनेमा में कला फिल्मों को जन्म देने वाली फिल्मों में से एक है ।
फिल्म प्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई के एक अप्रकाशित कहानी पर आधारित है । आगरा में रह रहा एक जूते का व्यापारी सलीम मिर्ज़ा (बलराज शाहनी) जो विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता और भारत में ही रहना चाहता है । सलीम मिर्ज़ा की लड़की अमीना अपने ही चचेरे भाई कासिम (जमाल हाशिम) के साथ प्यार करती है और दोनों शादी भी करना चाहते हैं । अन्य भारतीय मुसलमानों की तरह सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदार भी एक एक करके पकिस्तान रवाना हो रहे है और कासिम भी अपने पिता के साथ पकिस्तान जाता है, इस वादे के साथ की वो वापस आ कर आमिना से निकाह करेगा । 
सलीम मिर्ज़ा दुखी मन से सबको विदा कर रहे हैं इस उम्मीद में कि, एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा । सलीम मिर्ज़ा अपने बड़े बेटे के साथ अपने व्यवसाय को चलाने में दिक्कत का सामना कर रहा है क्यूंकि उसे आज अपने उन अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है जो कल तक उसे आसानी से मुहैय्या थे, जिसकी वजह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसका मुस्लिम होना ही है ।  
इसी बीच अपने वादे के अनुसार कासिम निकाह के लिए वापस आता है लेकिन राजनैतिक कारणों से उसे निकाह के पहले ही गिरफ्तार करके वापस पकिस्तान भेज दिया जाता है और ये कासिम की अमीना से आखिरी मुलाक़ात साबित होती है।
दुखी अमीना को एक बार फिर अपना प्यार शमशाद (जलाल आगा) में दिखता है, जो अमीना को हमेशा ही अपनाना चाहता था ।
व्यवसाय में हो रहा नुक्सान और सब जगह से मिल रही मायूसियों की वजह से सलीम मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला करता है और अब सलीम मिर्ज़ा अपनी बेटी, पत्नी (शौकत आज़मी) और छोटे बेटे सिकंदर(फारूख शेख, जो हमेशा से ही भारत में रहने का पक्षधर है) के साथ भारत में रह जाता है।
अमीना एक बार फिर मायूस है क्युकी शमशाद का परिवार भी पकिस्तान जा रहा ।
एक बार फिर शमशाद भी अमीना से वादा करके जाता है कि वो अपनी माँ को भेजकर उसे पाकिस्तान बुलवा लेगा ।  
पकिस्तान में अच्छा भविष्य मिल सकने की उम्मीद, भारत में उसके साथ हो रहा भेदभाव, घर से बेघर हो जाने और दूसरी तरफ बेटी का गम सलीम मिर्ज़ा की हिम्मत तोड़ देती है और इन परिस्थितियों में वो अपना आखिरी फैसला लेता है । 
फिल्म की मूल भावना में विभाजन और गाँधी जी कि हत्या के बाद देश में मुस्लिम समुदाय में हो रही उथल पुथल और उनके प्रति सोच में आ रहे बदलाव को दिखाना है, जिसमे निर्देशक एम. एस. सथ्यू पूरी तरह सफल रहे है. हालाँकि ये उनकी पहली फिल्म थी लेकिन ऐसा फिल्म देखने के दौरान कभी नहीं लगता । कम लागत में किसी भी फिल्म को समेटना अपने आप में ही एक चुनौती होता है । सथ्यू ने निहायत ही नाजुक मामलों को बड़ी संजीदगी से सम्भाला है । सलीम मिर्ज़ा बैंक मेनेजर और मकान मालिक से बात करते वक्त तथा सिकंदर नौकरी के साक्षात्कार के दौरान, सीधे कैमरे पर बात करता है और सामने वाले व्यक्ति को नहीं दिखाया जाता । ये बहुत ही प्रभावशाली द्रश्य है जो न सिर्फ सीधे आप से सवाल करते हैं बल्कि ये भी दिखाते हैं कि कैसे कुछ रीढविहीनलोग परदे के पीछे रहकर और अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम देकर अन्याय हो जाने देते हैं । 
फिल्म कि पटकथा कैफी आज़मी और शमा जैदी ने लिखा है । फिल्म के संवाद बहुत ही आम भाषा में हैं और सभी परिस्थितियों का पूरी तरह खुलासा करने में सक्षम हैं. फिल्म मुस्लिम समाज के भीतर और उनके प्रति हो रहे हर तरीके के बदलाव और सोच के सभी पहलुओं को बखूबी छूती है ।

१)      जहाँ एक ओर कुछ लोग सिर्फ मुस्लिम होने कि वजह से पकिस्तान जा रहे थे वही हिंदुओं के प्रति विश्वास आज भी कायम है जैसा कि एक मुस्लिम टाँगे वाला कहता है कि यहाँ के हिंदू भाई बहुत अच्छे है वो चमड़े के धंदे को हाँथ भी न लगायेगे ।
२)      वही दूसरी ओर एक हिंदू टाँगे वाला सलीम से ज्यादा पैसे कि मांग करता है और बदले में कहता है कि कम पैसे में जाना हो तो पकिस्तान चले जाओ ।
३)      बात सिर्फ कुछ हिन्दुओ कि ही नहीं बल्कि कुछ मौका परस्त मुसलमानों कि भी है, कासिम मिर्ज़ा का पिता जो मुसलमानों का नेता है और अंत तक भारत में रुकने का वादा कर चुपचाप ही पकिस्तान चला जाता है ।   
४)      एक और वर्ग है जो पकिस्तान के बनने के पक्ष में था लेकिन अब कांग्रेस में शामिल हो देश में ही रहने में भलाई समझता है ।
५)      वही दूसरी ओर देश के पढ़े लिखे नौजवानों के लिए समस्याएँ धर्म देख कर नहीं आ रही हैं बल्कि बेरोजगारी सबके हिस्से में है और एक शिक्षित मुस्लिम नौजवान (फारूक शेख) अपनी असफलता को सिर्फ धार्मिक भेदभाव बताकर मैदान छोड़देने में यकीन नहीं रखता ।
६)      पाकिस्तान के प्रति अविस्वास भी है जिसके लिए फिल्म में कासिम मिर्ज़ा अपने भतीजे को समझाते हुए कहता है कि पकिस्तान में उन्हें पतंग उड़ाने कि इज़ाज़त नहीं है जो पतंग के कट जाने पर रोते हैं ।
७)      ऊंचे ओहदों पर बैठे कुछ मुस्लिम भी अपनी वफ़ादारी के प्रदर्शन में मुस्लिम के साथ ही भेदभाव कर रहे हैं ।
८)      साथ साथ अमीना कि कहानी विभाजन का आम जिंदगी में पड़ने वाला असर भी दिखाती है ।
 सिनेमेटोग्राफर ईशान आर्या जो इस फिल्म के निर्माताओं में से एक थे, ने आगरा और फतेहपुर सीकरी के दृश्यों को अच्छे से फिल्माया है । ईशान आर्य ने एडिटर के काम को आसान किया इसमे बहुत सारे द्रश्य आइसे हैं जिसमे कोई कट नहीं है । फिल्म में एक कव्वाली है जिसका संगीत और फिल्मांकन दोनों ही बेहतर हैं. 
फिल्म में अदाकारी सबसे ज्यादा काबिल-इ-तारीफ़ है । सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा अभी ने किया है । गीता काक ने एक आम मुस्लिम लड़की का किरदार अच्छे से निभाया है । फारुख शेख जिनकी ये पहली फिल्म थी शौकत अजमी जलाल आगा, दीनानाथ जुत्सी , जमाल हासिम सभी अपनी जगह अच्छे हैं । दादी की भूमिका में एक स्थानीय महिला बदर बेगम को लिया गया जिसने एक मंझे हुए कलाकार की तरह ही काम किया औए उसकी ज़बान में एक स्थानीय महक और हास्य दोनों है । लेकिन जिस कलाकार के लिए ये फिल्म देखी जानी जरूरी है वे हैं बलराज शाहनी. किसी भी महान कलाकार का एक सबसे अच्छा काम बता पाना मुश्किल ही है फिर भी ये कहा जा सकता है की बलराज शाहनी के ये सबसे उम्दा कामों में से एक है ।
बलराज शाहनी हमेशा ही प्रतिकियातमक द्रश्यो में बिना संवाद के ही अपनी हाव भाव से सब कुछ कह देने वाले कलाकार है। फिर वो बैंक मेनेजर के सामने हो किराए का मकान ढूँढ रहे हों या अपने बड़े बेटे की बातो को सुनकर जवाब ना दे पा रहे हों. अफ़सोस की ये महान कलाकार अपनी इस महान अभिनय को देखने के लिए जिंदा न रहा। 
फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमे सदभावना के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और तीन फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले ।             

फिल्मों को अपने विवादस्पद विषयों कि वजह से प्रतिबंधित करना भारत में नया नहीं है बल्कि ये फिल्म तो एक कदम आगे ही है, फिल्म के विवादित हो जाने कि सम्भावना ने इसके निर्माता को फिल्म बीच में ही छोड़ देने पर मजबूर किया और एन.एफ.डी.सी. के सहयोग से इस फिल्म को पूरा किया गया । बाद में प्रदर्शन के पहले निर्देशक को ये फिल विभिन्न दलों के राजनेताओं को दिखानी पड़ी । आज के सन्दर्भ में भी ये फिल्म एक सबक है । फिल्म के निर्मातों का मार्क्सवादी विचार का होना फिल्म के अंत में परिलिक्षित होता है ।

समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की जिम्मेदारी है ।
आज हम जो पेड़ काट रहे हैं उनके बीजों को हम इस फिल्म में बोते हुए देख सकते हैं।