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Friday, June 24, 2016

उड़ता पंजाब 

‘उड़ता पंजाब’ उस अंतर्द्वंद की कहानी है जो पंजाब पर गर्व करने वाले हर पंजाबी और हिन्दुस्तानी के अन्दर होनी चाहिये. संगीत से लेकर खेत तक और देश के लिए गोल से लेकर गोली मारने तक पहला नाम पंजाब ही है. कोई आश्चर्य नहीं की वन्दे मातरम् के बाद हौसला अफजाई का दूसरा नारा ‘चक दे इंडिया’ है.
फिल्म से पहलाज निहलानी को क्या परेशानी थी ये बात समझी जा सकती है, हालाँकि माफिया और राजनेताओं के गठजोड़ को दिखाना पिछले 40 सालों से हिंदी फिल्मों का एक अभिन्न अंग रहा है. गाने ना हों ये संभव है लेकिन नेता और पुलिस भ्रष्ट ना हो ये असंभव जितना ही संभव है. लेकिन इस बार मामला इतना सीधा नहीं है. पंजाब के चुनाव और फिल्म में सबसे गंभीर समस्या का चुनाव, फिल्म को कुछ लोगो के आँख की किरकिरी बना दे ये संभव था.

फिल्म में दी जाने वाली गालिओं को निशाना बनाया जा सकता है लेकिन ‘ओंकारा’ और ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के रिलीज़ हो जाने के बाद मानक बदल जाने चाहिए थे. पंजाबी में दी जाने वाली गालियां एक तरीके से भाषा का एक हिस्सा भी हो चुकी हैं खासकर जब एक विशेष तबका उसका उपयोग कर रहा हो, इसलिए गालियों वाले संवाद ज़्यादातर खटकते नहीं है.
निश्चित तौर से निर्देशक नशे की भयावहता और इसकी चपेट में आते पंजाब को दिखाने में सफल रहे है. इस तरह की समस्याओं का पूरा ठीकरा पाकिस्तान के सर फोड़ कर आसानी से फिर देशभक्ति की वही बयार बहाई जा सकती थी जिसमें पंजाबी सैनिक मात्रभूमि के लिए कुर्बानी दे रहे हो. लेकिन ऐसी ही कई समस्याओं में हमारा अन्दर से कितना हाथ और जिम्मेदारी है ये दिखाना निर्देशक की सबसे बड़ी सफलता है.
हालांकि फिल्म में एक बिखराव है जो धीरे-धीरे एकजुट होता है और फिल्म को बांधता है. मुख्य किरदारों में टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) वही रॉक स्टार हैं जो दुनिया की किसी भी ख़ुशी को वोदका और डोप-शोप के बिना अधूरा समझते हैं बल्कि यूँ कहे की डोप-शोप ही खुशी है और यही इनके गानों का आधार है. 
बिना नाम वाली बिहारी लड़की के पात्र में आलिया भट्ट ने कुछ ऐसा किया है जो पहले मुख्य-धरा के व्यावसायिक सिनेमा में किसी भी अभिनेत्री ने नहीं किया है. हालांकि एक पात्र की तरह दिखने के लिए अपने अन्दर वैसा ही बदलाव करना अभिनय की बिलकुल शुरूआती शर्तों में से एक होना चाहिए लेकिन मेकअप ना करने के नाम पर सिर्फ बिंदी ना लगाने वाली अभिनेत्रियों के लिए आलिया एक उदाहरण होनी चाहिए. वो अभी युवा हैं और इस समय पर खूबसूरत और ग्लैमरस ना दिखने के जोख़िम उठाने की प्रसंशा होनी चाहिए. अलिया की उपस्थिति की वजह से करीना और बासी लगती है बल्कि हम असलियत नहीं बल्कि फिल्म ही देख रहे है, इस अहसास के लिए करीना कपूर काफी है.
दिलजीत दोसांझ का उल्लेख भी जरूरी है, जो वो बने हैं वही लगते हैं.

निश्चित तौर से सेंसर बोर्ड के कारनामों ने इस फिल्म के हक़ में भी हवा बनायी है. अच्छा ही है कि लोग इस फिल्म को आने वाले चुनाव के परिपेक्ष में ही देखे. पंजाब से बाहर रहने वाले लोग अपने पंजाब की चिंता कर सकते हैं और पंजाब में रहने वाले लोग अपने पंजाब को एक नयी दिशा दे सकते हैं.
एक बात और शायद हिंदी फिल्म में गैर यूपी-बिहार के पृष्ठभूमि से आने वाली अभिनेत्री के लिए ये पहला मौक़ा होगा जब भाषा का विशेष ध्यान रखा गया है और आलिया ने बखूबी निभाया है.
फिल्म के ट्रेलर में बिहारी लड़की के मूंह से ‘सियापा’ सुनकर जो अटपटा लग रहा था, उसका भी ध्यान रखा गया है.