आईये तीन घंटा के लिए वासेपुर चले । अरे भैया सनीमा देखे, गैंग्स आफ वासेपुर।
गैंग्स आफ वासेपुर साढ़े पांच घंटे की फिल्म है जिसे 2 भागो में प्रदर्शित किया जाएगा।फिल्म आधारित है बिहार में असमाजिक
तत्वों का लाठी (आधुनिक हथियार पढ़े) के जोर पर अपनी सत्ता कायम करने पर। सरदार खान (मनोज बाजपेयी) ऐसा ही एक गुंडा है जो वहाँ के
स्थानीय नेता रामधारी सिंह (तिग्मांशु धुलिया) का दुश्मन है, जिसने सरदार खान के
पिता शाहीद खान कि हत्या की थी। अब एक तीसरा ग्रुप भी है कुरैशियों का जिसका इस्तेमाल
रामधारी सिंह करता है सरदार खान के खिलाफ। और इसके बाद है खून
खराबा, गाली गलौच और वर्चस्व की लड़ाई।
“कहानी जित्ता बुचंटी
सा लग रहा है ना, सनीमा उत्ते लंबा है। एक बार सुरु होता है तो खतम होने का नामे नहीं लेता।“
जी हाँ फिल्म कि शुरुआत एक प्रभावशाली सीन से होती है उसके
बाद फिल्म 1940 से 2005 तक का सफर तय करती है। कोयला माफिया से शुरू हुई फिल्म आपके
दिमाग और पठकथा पर ऐसी कालिख मलती है कि बहुत कुछ समझ के परे हो जाता है यहाँ तक
कि पीछे से बराबर बोल रहे सूत्रधार की समझाईश भी कम पड़ जाती है। लेकिन इस कन्फ्युसन के बीच फिल्म के
ट्रीटमेंट का पूरा मज़ा लिया जा सकता है अलबत्ता ये जरूर है कि आप को भाषा पर थोड़ा
ज्यादा ध्यान रखना होगा और शायद इसीलिए फिल्म के उत्तर भारत में ज्यादा पसंद किये
जाने की संभावना है। गालियों का जम कर
इस्तेमाल किया गया है लेकिन ज्यादातर ये गालियाँ ठूंसी गयी नहीं लगती है, जैसा कि
आमतौर पर फिल्मों में होता है। फिल्म में कई सीन ऐसे हैं जो अच्छे से फिल्माए और लिखे गए
हैं। फिल्म में बहुत
सारे किरदार हैं जिनको वैसे भी याद रखना मुश्किल होता है ऊपर से ज्यादातर चेहरे भी
नए है तीसरे करेला वो भी नीम चढ़ा ये कि कुछ किरदारो को १ से ज्यादा लोग अभिनीत कर
रहे हैं। इसलिए कौन कब बदल जाता है पता ही नहीं चलता।
वैसे तो ये अनुराग कश्यप का पसंदीदा विषय है और उन्होंने एक
निर्देशक के बतौर अच्छा काम किया है, अनुराग कश्यप कि खासियत है की वो फिल्मों में
छोटी छोटी बातों का काफी ख्याल रखते हैं, लेकिन शायद वो अपने दिल के करीब के विषय से कुछ भी निकालना नहीं
चाहते थे इसलिए फिल्म अंतहीन से लगने लगती है।
फिल्म का संगीत आप का ध्यान अपनी ओर जरूर खींचेंगा, चाहे आप
गीत के बोल ना भी समझे। सिनेमेटोग्राफी काफी अच्छी है। फिल्म को अलाहाबाद, वाराणसी, पटना के साथ
साथ और भी कई जगहों पर फिल्माया गया है और बिहार को काफी सच्चाई से परदे पर उतारा
गया है। फिल्म के संवाद को
आम जिंदगी से ही उठाया गया है जो फिल्म को और सच्चाई के पास ले जाते हैं।
फिल्म में ज्यादातर एक्टर जैसे मनोज वाजपेयी, पियूष मिश्रा,
जयदीप अहलावत, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ये वो है जो पहले ही अपना लोहा मनवा चुके हैं
वही रीमा सेन और तिग्मांशु धुलिया ने भी अपने पात्रो को खूब जिया है.. रिचा चड्ढा
इस फिल्म कि खोज कही जा सकती है लेकिन अभी उन्हें अच्छी अभिनेत्री कहने से पहले
कुछ और इंतज़ार करना होगा।
जिस तरह से ये फिल्म अपनी कहानी कहते कहते दर्शकों के धैर्य
का इम्तिहान लेने लगती है उसको देखकर यही कहा जा सकता है कि ... डाइरेक्टर साब
ठीके कहे थे .... “कह के लूँगा” ।