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Sunday, January 27, 2013

सिनेमा चालीसा


पहला सवाल तो ये कि गणतंत्र दिवस के 65वीं सालगिरह पर सारे टीवी समाचार चैनल, सिनेमा के 65 साल क्यों दिखा रहे थे??  खैर टीवी के विषय में ज्यादा सवाल करना खुद के सोचने और समझने की शक्ती पर सवाल खड़ा कर सकता है।

इसी सन्दर्भ में  सिनेमा के 60 साल पूरे होने पर एक पाठक वीरेन्द्र सिंह ने हनुमान चालीसा के तर्ज़ पर सिनेमा चालीसा लिखी (फिल्म पत्रिका माधुरी में)। आज 40 साल के बाद सौ साल पूरे होने पर इस रचना में और कितने नाम जोड़े जा सकते हैं?




       
दोहा:        सहगल चरण स्पर्श करनित्य करूँ मधुपान
सुमिरौं प्रतिपल बिमल दा निर्देशन के प्राण
स्वयं को काबिल मानि कैसुमिरौ शांताराम
ख्याति प्राप्त अतुलित करूँदेहु फिलम में काम

चौपाई:     जय जय श्री रामानंद सागरसत्यजीत संसार उजागर
दारासिंग अतुलित बलधामारंधावा जेहि भ्राता नामा
दिलीप 'संघर्षमें बन बजरंगीप्यार करै वैजयंती संगी
मृदुल कंठ के धनी मुकेशाविजय आनंद के कुंचित केशा।

विद्यावान गुनी अति जौहर, 'बांगला देशदिखाए जौहर
हेलन सुंदर नृत्य दिखावालता कर्णप्रिय गीत सुनावा
हृषीकेश 'आनंदमनावेंफिल्मफेयर अवार्ड ले जाएं
राजेश पावैं बहुत बड़ाईबच्चन की वैल्यू बढ़ जाई

बेदी 'दस्तकफिलम बनावेंपबलिक से ताली पिटवावें
पृथ्वीराज नाटक चलवानाराज कपूर को सब जग जाना
शम्मी तुम कपिदल के राजातिरछे रोल सकल तुम साजा
हार्कनेस रोड शशि बिराजेंवाम अंग जैनीफर छाजें

अमरोही बनायें 'पाकीजा', लाभ करोड़ों का है कीजा
मनोज कुमार 'उपकारबनाईनोट बटोर ख्याति अति पाई
प्राण जो तेज दिखावहिं आपैंदर्शक सभी हांक ते कांपै
नासैं दुख हरैं सब पीड़ापरदे पर महमूद जस बीरा

आगा जी फुलझड़ी छुड़ावैंमुकरीओम कहकहे लगावैं
जुवतियों में परताप तुम्हारादेव आनंद जगत उजियारा
तुमहिं अशोक कला रखवारेकिशोर कुमार संगित दुलारे
राहुल बर्मन नाम कमावें, 'दम मारो दममस्त बनावें


नौशादहिं मन को अति भावेंशास्त्रीय संगीत सुनावें
रफी कंठ मृदु तुम्हरे पासासादर तुम संगित के दासा
भूत पिशाच निकट पर्दे पर आवेंआदर्शहिं जब फिल्म बनावें
जीवन नारद रोल सुहाएंदुर्गाअचला मा बन जाएं

संकट हटे मिटे सब पीड़ाकाम देहु बलदेव चोपड़ा
जय जय जय संजीव गुसाईंहम बन जाएं आपकी नाईं
हीरो बनना चाहे जोई, 'फिल्म चालीसापढ़िबो सोई
एक फिलम जब जुबली करहींमानव जनम सफल तब करहीं

बंगला कारचेरि अरु चेरा, 'फैन मेलकाला धन ढेरा
अच्छे-अच्छे भोजन जीमैंनित प्रति बढ़िया दारू पीवैं
बंबई बसहिं फिल्म भक्त कहाईअंत काल हालीवुड जाई
मर्लिन मनरो हत्या करईंतेहि समाधि जा माला धरईं

      दोहा:           बहु बिधि साज सिंगार करपहिन वस्त्र रंगीन
राखीहेमासाधनाहृदय बसहु तुम तीन
                                  (वीरेन्द्र सिंह गोधरा, 15 सितंबर 1972.)

बोल इन्द्रा बोल







सिनेमा के सौ साल, मंहगाई, भ्रष्टाचार, कांग्रेस की सरकार  इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए, हिंदी सिनेपत्रिका "माधुरी" में 1967 में छपी एक परोडी आज भी प्रासंगिक है।



इतना महँगा गेहूँऔ इतना महँगा चावल
बोल इन्द्रा बोल सस्ता होगा कि नहीं

कितने घंटे बीत गए हैं मुझको राशन लाने में
साहब से फटकार पड़ेगी देर से दफ़्तर आने मे
इन झगड़ों का अन्त कहीं पर होगा कि नहीं॥ बोल इन्द्रा बोल...

दो पाटों के बीच अगर गेहूँ आटा बन जाता है
क्यों न जहाँ पर इतने कर होंदम सबका घुट जाता है
कभी करों का यह बोझा कम होगा कि नहीं।। बोल इन्द्रा बोल...

हम जीने को तड़प रहे ज्यों बकरा बूचड़ख़ाने में
एक नया कर और लगा दो साँस के आने-जाने में
आधी जनता मरे चैन तब होगा कि नहींबोल इन्द्रा बोल...

                                    माधुरी (22 सितंबर 1967).

Sunday, January 20, 2013

Matru Ki Bijlee Ka Mandola




विशाल भारद्वाज एक बड़े फिल्मकार हैं, और उनकी फिल्मों को देख कर लग रहा है कि जिस कैनवास और मुद्दे कि फिल्म वो बनाना चाह रहे हैं उसके लिए उनकी २ फिल्मों के बीच शायद और ज्यादा वक्त दरकार है
जहां तक कलात्मक स्वतन्त्रता का सवाल है उसकी हद इस बात पर निर्भर करती है कि आप ने इस स्वतन्त्रता का किया क्या? अफ़सोस विशाल ज्यादा कुछ नहीं कर पाए
नेता, पुलिस, अपराधी और उद्योगपतियों का जमावडा कितना घातक हो सकता है, बात यही थी ऐसी बातें हलके फुल्के अंदाज़ में की जाए तभी इसका असर होता है यहाँ तक विशाल का अंदाज़ सही था लेकिन अंदाज़ इतना भी हल्का नहीं होना चाहिए की फिल्म का फुल्का बन के रह जाए
मटरू (इमरान खान) मंडोला का ड्राईवर है और मंडोला की लड़की है बिजली (अनुष्का शर्मा) मंडोला प्रदेश की मुख्यमंत्री देवी (शबाना आज़मी) के साथ सांठ गाँठ करके गाँव के इकोनोमिक जोन वाली ज़मीन पर अपनी फैक्ट्री खोलना चाहता है मंडोला एक शराबी है जो शराब के नशे में एक उदार दिल इंसान बन जाता है और अपने ही खिलाफ गाँव वालो को भड़काता है  
मिलने वाली जायदाद को देखते हुए देवी अपने बेटे बादल (आर्य बब्बर) की शादी बिजली से कराना चाहती है जिसमे मंडोला का भी राजनैतिक फायदा है
इस राजनैतिक खेल में गाँव वालो की ज़मीन हथियाई जा रही है जिसको रोकने के
लिए गाँववालों के साथ माओ है बाज़ी कभी सरकार और कभी गाँव वालो के तरफ आती जाती है
 
अभिषेक चौबे और विशाल भारद्वाज पठकथा लिखने में शायद इस बात पर मात खा गए की फिल्म को किस हद तक गंभीर रखा जाए और किस हद तक कॉमेडी लेकिन गंभीर मुद्दों को कोमेडी में पिरोने का प्रयास सराहनीय था हालांकि फिल्म १९४० के एक नाटक Mr Puntila and his Man Matti से काफी प्रभावित लगती है लेकिन इसमे अभिषेक और विशाल ने अपने रंग भरे हैं
जहां तक निर्देशन का सवाल है विशाल अपने तरह के अकेले ही निर्देशक हैं और वो बतौर निर्देशक अपने स्तर का अहसास करा ही देते हैं हालांकि इस बार हरियाणा की प्रष्ठभूमि थी लेकिन उन्होंने संवादों को गालियों से बचाया और साथ साथ शब्दों का बड़ा ही अच्छा उपयोग भी किया है जैसे भाग झोपड़े से आंधी आयी
बतौर संगीत निर्देशक विशाल भारद्वाज ने कई रंग भरे हैं, गीत के बोल सुनकर ही पहचाना जा सकता है की ये काम गुलज़ार का है
कार्तिक विजय की सिनेमेटोग्राफी एवं श्रीकर प्रसाद की एडिटिंग अच्छी है


अभिनय की द्रष्टि से फिल्म पूरी तरह पंकज कपूर के ही इर्द गिर्द घूमती है, पंकज कपूर ने अच्छा अभिनय किया है और इससे कम की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है शबाना आज़मी ने अपनी स्तर का काम किया है और एक दो दृश्यों में उन्होंने कमाल ही किया है लेकिन ये कहना होगा की इमरान खान का ये अभी तक का सबसे उम्दा अभिनय है विशाल ने ये बात का ख्याल बराबर रखा है की इमरान को कितनी ढील देनी है अनुष्का अपने कम्फर्ट ज़ोन में हैं,  उन्होंने जो पहली फिल्म में किया था, और जो पिछली फिल्म में किया था, और जो इन दोनों फिल्मों के बीच में किया था, वही उन्होंने इस फिल्म में भी किया है।  अभी तक उनके अभिनय में कोई दूसरा रंग देखने को नहीं मिला है आर्या बब्बर भी फिल्म में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं
फिल्म एक बार देखे जाने के काबिल है और हर किसी के लिए नहीं है इस बात का भी सुकून है की विशाल जैसे निर्देशक आज भी सौ करोड के रेस में नहीं हैं इसलिए अच्छी फिल्मों की उम्मीद बराबर की जा सकती है
एक आखिरी सवाल कही फिल्म ये तो नहीं कहती कि माओ सचमुच किसानो का दोस्त है??
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Thursday, January 3, 2013

सेलेब्रिटी होने की ज़िम्मेदारी



सेलेब्रिटी होने की ज़िम्मेदारी 






दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना ने आम-जनमानस  को भी झकझोर के रख दिया। आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हुआ और चल रहा है। अच्छी  बात ये है की एक बहस शुरू हुई है, और होती रहनी चाहिए।
हमारे फ़िल्मी सितारे भी आवाज़ उठाने में पीछे नहीं रहे। फिर चाहे दोषियों को सज़ा दिलवाना, कानून में बदलाव, सरकार की भूमिका और पुलिस के रवैय्ये हर बात पर बात। खूब बात।
लेकिन फ़िल्मी सितारों को सबसे पहले अपने हिस्से के काम को अंजाम देना चाहिए। और वो है फिल्मों में महिलाओं की स्थिति। भारत में महिलाओं के माजूदा बर्ताव को सही मनवाने के सबसे ज्यादा क्रेडिट फिल्मों को ही मिलवाना चाहिए।
आदर्श भारतीय नारी की तथाकथित परिभाषा आम जनता तक फिल्मों ने ही पहुंचाई है।
औरतों को भोग की वस्तु की तरह परोसे जाने में आला दर्जे की अभिनेत्रियों का भी हाँथ है। आखिरकार कौन सी मजबूरी करीना कपूर और कटरीना कैफ को आईटम नंबर करवाता है। हालत ये है की जिस वक़्त लोग कैंडल लिए सड़कों पर घूम रहे है, सलमान साहब दोषियों को फांसी की वकालत कर रहे हैं वही दबंग में वो मिस काल से "लौंडिया  पटाने" की बहादुरी दिखा रहे हैं। हनी सिंह खुल्लम खुल्ला समाज की शालीनता के साथ बलात्कार कर रहे हैं।
अमिताभ बच्चन काफी आहत हैं। पुलिस पर ऊंगली उठाने वाले अमिताभ ने खुद पुलिस बन कर क्या नसीहत दी ये हम देख सकते है। देखे अमिताभ साहब अपने इस प्रवचन पर दूसरी लाइन क्या कहते हैं।
पहली लाइन :- हम तो निर्देशक के हाँथ की कठपुतली हैं।