VICKY-DONOR
भारत में
दान-दक्षिणा वैसे भी पुण्य का काम माना गया है और ऐसा दान जिससे एक जान दुनिया में
आ रही हो और दस जानो को सुकून मिल रहा हो, उसके अच्छे या बुरे होने में ज्यादा बहस
नहीं होना चाहिए। वैसे अब आप को ये सुन कर अपने दिमाग में ज्यादा जोर नहीं देना
चाहिए क्युकी तनाव वैसे भी स्पर्म-काउंट के लिए ठीक नहीं है, क्युकी विकी-डोनर
मूलतः एक प्रेम कहानी है और इस फिल्म के माध्यम से (क्युकी सभी भावनाए और संवेदनाए
स्कूल कि किताबो में नहीं पढायी जा सकती।) आप को एक ऐसे विषय (स्पर्म-डोनेशन) के
बारे में पता चलेगा जो कई परिवारों को नयी जिंदगी देता है।
विक्की
अरोड़ा (अंशुमान खुराना) दिल्ली का एक आम मध्यमवर्गीय परिवार का है जो अपनी माँ डाली
(डाली आहलुवालिया) और दादी (कमलेश गिल) के साथ रहता है। उत्सुकता और पैसे के आभाव
में विक्की, डाक्टर चड्ढा (अन्नू कपूर, जो शकल देख कर स्पर्म पहचाने कि काबिलियत
रखता है) के क्लीनिक में अपना स्पर्म डोनेट करने को तैयार हो जाता है जिसके लिए
उसे अच्छे पैसे भी मिलते हैं और अब ये उसका छिपे तौर पर पेशा सा बन गया है। विक्की
को बैंक में काम करने वाली एक बंगाली बाला आशिमा रॉय (यामी गौतम) से प्यार हो जाता
है जो अब उससे शादी करने जा रहा है।
तो क्या
विक्की शादी के बाद भी यही करेगा या उसका डोनेशन “ यूँ ही waste हो रहा है” कि वजह से था?
क्या आशिमा
को अपने “वीर्यवान” पति के “दानवीर” होने का पता चलता है ? ऐसे ही कई सवालो के जवाब देते हुए
ये फिल्म खूबसूरती से अपने अंजाम पर पहुंचती है।
दिल्ली कि
प्रष्टभूमि पर बनने वाली फिल्मो में अचानक आई बाढ़ से लगने लगा है कि अब फिल्मों को
भी पता चल गया है कि भारत कि राजधानी दिल्ली ही है।
दिल्ली के
सिर्फ अपने लहजे और लाईफ-स्टाईल से भी हास्य पैदा किया जा सकता है लेकिन पिछली कुछ
फिल्मो में इसे काफी निचोड़ा जा चुका है इसलिए अब अकेले लहजे से काम नहीं चलने वाला
था और यहाँ जुही चतुर्वेदी ने लहजे के साथ बहुत कुछ लिखा है। डाईरेक्टर सुजीत
सरकार ने हमेशा धीरे आवाज़
में बात किये जाने वाले इस विषय को इतनी संजीदगी और खूबसूरती से निभाया है कि इसे
डाल्बी साउंड में भी सुना जा सकता है । फिल्म के पहले हिस्से में विक्की, और उसको स्पर्म की फैक्ट्री समझ पीछे पड़ने
वाला डाक्टर चड्ढा कि हर बातचीत, विक्की की आशिमा से हर मुलाक़ात, विकी कि माँ और
उसकी दादी का साथ बैठ अपने गम गलत करना सब कुछ मानो हंसी से भरा हुआ है। दूसरे
हिस्से में फिल्म एक प्रेम कहानी है और थोडा धीमे होती है लेकिन फिल्म कि रफ़्तार
जरा भी बोरे होने के अहसास को जगाये उसके पहले सुजीत अपनी बात कह कर खतम कर चुके
होते हैं। बंगाली और पंजाबी परिवार के बीच के कल्चरल-डिफरेंस को भी निर्देशक ने
खूबसूरती से हास्य में उपयोग किया है, जिसमे कुछ बातें वैसे आपत्तिजनक भी हो सकता
थी।
अंशुमान
खुराना ने ना सिर्फ एक अच्छी एंट्री की है बल्कि अब वो टीवी पर लोगो कि “एंट्री” पर उनका नाम बताने के काम से भी बचेंगे। अंशुमान के लिए
फिल्म में कामेडी के अलावा भी बहुत कुछ करने को था और उन्होंने हर जगह प्रभावित
किया है, उम्मीद है कि वो रणवीर सिंह बनकर नहीं रह जायेंगे। अन्नू कपूर कि अभिनय
छमता सबको पता है और उन्होंने उसके अनुरूप ही काम किया है, डोली अहलुवालिया और
कमलेश गिल ने साथ में किये गए द्रश्यों से फिल्म को और बेहतर किया है। यामि गौतम ने
टीवी सीरियल और दक्षिण भारतीय फिल्मों में काम करने के बाद हिंदी फिल्म में कदम
रखा है और बंगाली लड़की कि भूमिका में काफी शांत और आकर्षक लगी है, और पूरी तरह
किरदार के लिए उपयुक्त लगती है (शुक्र है एक बार फिर कोनकोना सेन को नहीं ले लिया
गया है)। फिल्म के संवाद और अक्षय-अजय द्वारा दिया संगीत अच्छा है।
जॉन
अब्राहम ने एक निर्माता के हैसियत से अपने कई साथियों से बाज़ी मार ली है और वो एक
ऐसी फिल्म को बनाए जाने के लिए बधाई के पात्र हैं।
इस फिल्म
से स्पर्म-डोनेशन के काम को कितनी सामाजिक मान्यता मिलेगी ये कहना मुश्किल है पर
फिर भी ये एक सकारात्मक शुरुआत है। वही दूसरी ओर विक्की-डोनर एक बार फिर फिल्म
निर्माताओ को पैसा बचाने का रास्ता सुझा रही कि योरोप अमेरिका में दौड़ने कि जरूरत
नहीं है कम पैसे में अच्छी कहानी और निर्देशन से एक सफल फिल्म बनाई जा सकती है।
दर्शक
हमेशा ही फिल्मों में कहानी के लिए जाता है विश्व-भ्रमण के लिए नहीं।
(3.5/5)
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