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Thursday, December 8, 2011

“द डर्टी पिक्चर”

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फिल्म निर्माताओं का एक वर्ग आज भी इस बात पर पूरी तरह विश्वास करता है की इन्टरटेनमेंट के सिर्फ तीन ही मतलब हो सकते हैं - सेक्स सेक्स और सिर्फ सेक्स और उनका मानना है की अगर जेब में पैसे ठूसने हों तो कहानी में सेक्स ठूसने के बजाये अब सेक्स में कहानी ठूसो  इस लिहाज़ से सिल्क स्मिता की कहानी का चुनाव न सिर्फ एक बेहतरीन व्यावसायिक कदम है बल्कि ये फिल्म निर्माताओं को पूरी छूट देता है की फिल्म की हीरोइन को दिखाने के लिए उसके चहरे को दूसरे नंबर पर रखा जाए 
बालाजी फिल्म्स द्वारा प्रस्तुत द डर्टी पिक्चर एक ऐसी लड़की रेशमा ( विद्या बालन ) की कहानी है जो गाँव से भागकर मद्रास आई है और एक फिल्म स्टार बनाना चाहती है  आगे बढ़ने की चाह में वो कुछ भी करने के लिए तैयार है, और आमतौर पर जैसा होता है सब कुछ करने के बाद भी उसके हाँथ जो आता है वो है फिल्मों में उत्तेज़क डांस करना जो फिल्म की सफलता का एक बेहतरीन मसाला है  रेशमा को सुपरस्टार सूर्या (नसीरुद्दीन शाह) के साथ समझौता करने के एवज में उसके साथ काम करने का मौका मिलता है और वो सूर्या द्वारा बराबर इस्तेमाल हो रही है  और अब रेशमा का नाम है सिल्क  अब्राहिम (इमरान हाशमी) एक निर्देशक है जो विवेकपूर्ण फिल्मे बनाता है इसलिए फिल्मो के घटिया मसालों से नफरत भी करता है  रमाकांत (तुषार कपूर) जो सूर्या का भाई है वो पेशे से एक फिल्म लेखक है इधर सिल्क का सूर्या द्वारा खुद को इस्तेमाल किये जाने का सच सामने आने के बाद वो सूर्या के भाई रमाकांत से इश्क की पींगे बढाने लगती है  एक ऐसा वक्त आता है जहाँ सिल्क ना सिर्फ  रमाकांत द्वारा भी ठुकरा दी जाती है बल्कि इस सदमे के फलस्वरूप उसका शराब में डूबा रहना अब उसको काम से भी दूर ले जाता है  कुछ घटनाक्रमों के बाद अब्राहिम, सिल्क की ओर देखता है जहा सिल्क के पास न अब रूप बचा है और न रुपया  अब्राहिम और सिल्क आप को फिल्म के समापन पर ले जाते हैं 
रजत अरोरा द्वारा लिखी गयी पटकथा एकदम उद्देश्यहीन तरीके से आगे बढती है और ज्यादातर जगहों पर उबाऊ है फिल्म में रोचकता बनाये रखने के लिए घटिया संवादों का सहारा लिया गया है फिल्म तथाकथित तौर पर दक्षिण भारतीय फिल्मो की अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है लेकिन जिस तरीके से सिल्क स्मिता के चरित्र को लिखा और दिखाया गया है, उसको देखकर ये समझना मुश्किल है की आखिर ये कहानी किसी भी निर्माता को फिल्म बनाने के लिए प्रेरित क्यों कर सकती है ना तो सिल्क का विद्रोही स्वभाव उभर कर आता है न ही उसके फ़िल्मी चकाचौंध के पीछे की असली जिंदगी का दर्द दिखता है न ही दर्शकों को पात्र से सहानभूति होती है फिल्म के एक संवाद में अब्राहिम, सिल्क से कहता है की “ तुम्हारे लिए आगे की ४ लाईन हैं बाकी की ४० लाईन मेरे लिए हैं”  निर्माता निर्देशक ने आगे की उन ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है और पूरी कोशिश की है की आगे की ४ लाइन को पीछे की ४० लाईन तक कैसे बढ़ाया जा सकता है, जिसमे वे सफल भी रहे हैं हालांकि कुछ रीढविहीन फिल्म आलोचक इस बात पर विशेष जोर दे रहे हीं की फिल्म परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है लेकिन आप परिवार के साथ देखने के पहले ये सुनिश्चित कर ले की आप के परिवार और इन समीक्षकों के परिवार में क्या फर्क है 
 फिल्म में अभिनय की द्रष्टि से कुछ उल्लेखनीय बाते जरूर है, जैसे की इस फिल्म को देखने की सिर्फ और सिर्फ एक वजह हो सकती है वो है विद्या बालन का इस पात्र को करने के लिए हाँ बोलना भारतीय सिनेमा में कितनी ऐसी अभिनेत्रियां होंगी जिन्होंने परदे पर खुद को सांवली, मोटी, उत्तेजक और कामुक या एक ढले हुए चहरे वाली अभिनेत्री दिखाने के लिए हाँ की होगी, और ऐसा करने के लिए मेहनत करना तो दूर की बात है  विद्या को न सिर्फ इस अभिनय के लिए बल्कि ऐसा करने की हिम्मत के लिए भी प्रशंशा मिलनी चाहिए, और निसंदेह वे इस साल के कई पुरस्कारों से नवाजी जा सकती है इमरान हाशमी पर लगे फ़िल्मी ठप्पे के विपरीत उन्हाने ने ऐसे निर्देशक का रोल किया है जो फिल्मो में सेक्स और हिंसा को पसंद नहीं करता है जिसमे वो पूरी तरह जंचते है एक बात यहाँ कहना जरूरी है की नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मी जीवन पर नज़र डाली जाए तो इस रोल के लिए उनकी प्रसंशा नहीं की जा सकती हालांकि उन्होंने अपने काम को बेहतर ढंग से किया है लेकिन ये आपको सोचने पर मजबूर कर सकता है की क्या अब इन बड़े और महान अभिनेताओं को ऐसे रोल भी आकर्षित कर सकते हैं ?
तुषार कपूर ठीक हैं   
विशाल शेखर का संगीत फिल्म के मुताबिक ही है  “उह्ह ला ला” चालू गाना है जो कुछ दिन अच्छा लगेगा, “मेरा इश्क सूफियाना” हालाँकि कर्णप्रिय है लेकिन उसके आते आते आप अपना संय्यम खो चुके होते हैं  विजय एंथोनी द्वारा संगीतबद्ध गाना “नाक मुक्का“ जो बैकग्राउंड में बजाता है कुछ उम्मीद जगा सके उसके पहले खतम हो जाता  है   हालाँकि फिल्म के दोनों ही गाने फिल्माए अच्छे से गए है फिल्म की लम्बाई कम हो सकती थी, कई जगहों पर फिल्म बहुत धीरे आगे बढती है लेकिन उसका ठीकरा एडिटर के सर नहीं फोड़ा जा सकता प्रिया सुहास ने ८० के दशक का लुक अच्छा दिया है हालांकि उन्हें ज्यादातर फिल्मो के सेट ही दिखाने थे जो अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता की मांग नहीं करते 
फिल्म निर्देशक मिलन लुथरिया ने हमेशा ही सिनेमा की आगे की ४ लाइन का विशेष ध्यान रखा है  और इस बात के लिए वो हमेशा ही चालू दर्जे के और जरूरत से ज्यादा “डायलागबाजी” ( काछे धागे, ... मुंबई ) पर बहुत यकीन करते हैं  लेकिन इस फिल्म की विषयवस्तु ने उन्हें और भी मौक़ा दिया है की वे विशेष दर्शक वर्ग के लिए कुछ और भी “विशेष” दे पाए  और उन्होंने अपने दिल की बात अब्राहिम के जरिये कही भी है की सफल निर्देशक विवेकपूर्ण फिल्मे बनाने वाला नहीं होता बल्कि वो होता है जो किसी भी स्तर तक जा के अपनी फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल करा सके  
अंततः ये कहा जा सकता है की जिस तरह से आज सेक्स और हिंसा को फ़िल्मी परदे पर मान्यता दिलाई जा रही है सिल्क स्मिता को अपने ८० के दशक में फिल्मो में आने का अफ़सोस होगा अगर वो आज होती तो शायद उन्हें आत्महत्या ना करनी पड़ती
“द डर्टी पिक्चर” सिल्क स्मिता द्वारा अभिनीत B-ग्रेड फिल्मो की तरह ही एक फिल्म है जिसे सेंसर बोर्ड और निर्माता दोनों ने ही A-ग्रेड दिया है, और इसमे सिल्क १० मिनिट के लिए नहीं बल्कि २ घंटे के लिए हैं 

** Star



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