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Wednesday, December 28, 2011

DON 2



सिंघासन का हिलना और बादशाहत का खतम हो जाना दो अलग अलग बातें हैं, इस लिहाज़ से शाहरुख खान आज भी हिंदी फ़िल्म्स के बादशाह हैं लेकिन उनको एक बात समझनी होगी की बादशाहत को कायम रखने के लिए सिंघासन को मज़बूत किये जाने का वक्त आ चुका है. 

फरहान अख्तर द्वारा ५ साल के बाद निर्देशित फिल्म डान प्रदर्शित हो चुकी है. जिसमे
डान की (शाहरुख खान) नज़र अब यूरोप में अपनी धाक जमाने की है और इस सिलसिले में वो जर्मनी का एक बैंक लूटना चाहता हैं. लेकिन यूरोपीय माफिया के लोग डान को जान से मारना चाहते हैं, दूसरी तरफ इंटरपोल भी डान के पीछे है. ऐसे में डान अपने पुराने दुश्मन वर्धान (बोमन इरानी) की मदद चाहता है. इस लिए डान खुद को गिरफ्तार करवा मलेशिया की जेल में पहुँचता है जहा वर्धान पहले से अपनी सजा भुगत रहा है. यहाँ से दोनों जेल तोड़ कर भाग जर्मनी के एक बैंक को लूटने की योजना बनाते हैं जिसमे कुछ अन्य अपराधी भी उनकी सहायता करते हैं. इनके बनाए प्लान का क्या होता है और बाद में खुलने वाले राज़ क्या हैं ये देखना दिलचस्प हो सकता है. जीहाँ कहानी यही है.

फिल्म की कहानी और पटकथा फरहान अख्तर, अमीत मेहता और अमरीश शाह द्वारा लिखी गई है. डान जैसी किसी फिल्म के दूसरे पार्ट लिए ऐसी लचर कहानी का चुनाव बिलकुल ही उपयुक्त नहीं था. पटकथा फिल्म के पहले हिस्से में कई जगह ढीली और उबाऊ है. फिल्म एक “मास्टर-प्लान” को अंजाम देने की कहानी है लेकिन उसके शुरू होते होते ही फिल्म का एक बड़ा हिस्सा खतम हो चुका होता है. लेखक किसी भी योजना में किसी तरह का कोई रोमांच पैदा नहीं कर सके. हालांकि की एक नकारात्मक पात्र को नायक बनाए जाने की अपनी सीमाएं होती हैं, लेकिन अचानक पात्र को सहानुभूति दिए जाने का प्रयास और जबरदस्ती “ह्रदय-परिवर्तन” जैसी हर कोशिश काफी हास्यास्पद लगती है. फिल्म की नायिका रोमा (प्रियंका चोपरा) और डान के बीच की “केमेस्ट्री” को दिखाने का हर प्रयास काफी हास्यास्प्रद लगता है. नायक की भूमिका कितना बड़ा कलाकार क्यों न कर रहा हो, उसके पात्र को दमदार बनाये जाने के लिए बाकी पात्रों में जान होना भी जरूरी है. जिसका यहाँ पूरी तरह आभाव है.
जिस तरह डान की नज़र यूरोप पर है ठीक उसी तरह शाहरुख और निर्माताओं की नज़र भी योरोप ओर विदेशी बाजारों पर ही है, इसीलिए डान के पीछे चाहे कितने ही मुल्को की पुलिस क्यों ना लगी हो वो घूमता बहुत है और  फिल्म के खतम होने के पहले तक हर खतरे से बाहर है, जैसे हर किसी ने डान को ना मारने की कसम सी खा राखी हो. फिल्म के बाद में खुलने वाले राज़ जरूर आप को चौंका सकते हैं. फिल्म एक बड़े कैनवास पर बनी है जो कई बार आपको याद दिलाती रहेगी की फरहान अख्तर ने ये बड़ा “कैनवास” कहा से लिया है. 
फरहान अख्तर ने दिल चाहता है जैसी फिल्म बनाने के बाद जब अभिनय में खुद को अजमाने का सोचा तो सबको लगा था की कही एक अच्छा निर्देशक ना खो जाए. अभिनय में अपने जौहर दिखाने के बाद डान-२ में उनकी बतौर निर्देशक वापसी इस बात का अहसास दिलाती है की निर्देशन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कही न कही प्रभावित हुई है. फरहान के लिए शायद शाहरुख की उपस्थिति ही उनको इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा रही होगी. किसी भी अच्छी (एक्शन-थ्रिलर) फिल्म के लिए बारीकियों को समझाना जरूरी होता है ना की दर्शकों को भ्रमित कर अपना काम निकालना. कंप्यूटर स्क्रीन पर कुछ भी ना समझ में आने वाला डाटा का आना जाना और कीबोर्ड पर जोर जोर से इंटर मारना तो मानो हर समस्या का हल हो गया है. वैसे तो डान सारी दुनिया में यु आ जा रहा है जैसे उसने काफी यातायात के नियम भी ना तोड़े हों और अचानक उसको मास्क पहने की जरूरत पड़ जाती है. या फिर निर्देशक ये बताना चाह रहे हों की सिर्फ हमारी पुलिस ही नहीं जर्मनी की पुलिस भी उतनी ही निकम्मी है. फरहान अख्तर ने इतना सारा काम अपने हांथो में ले लिया की शायद वो किसी भी काम से न्याय नहीं कर पाए, उनके द्वारा लिखे गए संवाद भी औसत दर्जे के हैं. फिल्म में डान का पात्र और ज्यादा मजेदार एवं दमदार संवाद की मांग करता है जो फिल्म में कही नहीं है.
फिल्म का “बैगराउंड” संगीत अच्छा है लेकिन फिल्म संगीत में इस बार शंकर-अहसान-लॉय मात खा गए. औसत दर्जे का संगीत और कही कही उबाऊ पटकथा आप को पहली बार एक “आईटम-नंबर” का कमी महसूस कराएगा.
जेसन वेस्ट का सिनेमेटोग्राफी काफी अव्वल दर्जे की है. “कार चेस” जैसे द्रश्य हालांकि आप कई बार देख चुके है लेकिन जेसन ने अपना काम ऐसे कई दृश्यों में बखूबी निभाया है. रितेश सोनी और आनंद सुबया ने फिल्म की एडिटिंग काफी अच्छी की है, हालांकि तेज़ी से घटना क्रम बदल रही फिल्मों की एडिटिंग पूरी तरह सॉफ्टवेर पर निर्धारित हो गयी है. “एक्शन-कांसेप्ट” द्वारा किये गए एक्शन द्रश्य काफी अच्छे हैं.
अभिनय की द्रष्टि से प्रियंका चोपरा डान-१ के मुकाबले इस बार बहुत ही अनुपयुक्त लगती है, उनके पास ऐसे ज्यादा द्रश्य नहीं थे जिसमे वे कुछ प्रभाव छोड़ पाती. लारा दत्ता को कम काम मिले जाने की आशंका थी लेकिन उन्होंने इस आशंका को कही पीछे छोड़ दिया और वे तीन चार दृश्यों में ही देखी गयी. बोमन इरानी ने अच्छा काम किया है और एक द्रश्य में वे हास्य पैदा करने में सफल रहे है. अली खान और नवाब शाह ने अपने काम के साथ न्याय किया है. कुनाल कपूर भी अपने काम में जंचते हैं. ओम पुरी को डान -१ की वजह से फिल्म में रखा जाना शायद मजबूरी रही हो.
अब बात उनकी जिसकी वजह से ये फिल्म बनाए जाने का सोचा गया होगा जीहाँ शाहरुख खान. एक लंबे अरसे के बाद के शाहरुख खान को गले में स्वेटर बांधे और डिजायनर सूट्स के बाहर देखना अच्छा लगा. शाहरुख खान का एक एक्शन हीरो का “गेटअप” काफी अच्छा है. शाहरुख ने दिखाया की वो “लव और लड़ाई” दोनों में एक सामान सक्षम हैं. फिल्म में संवादों का अच्छा न होना और किसी दमदार पात्र का सामने ना होना उनके अभिनय में वो रंग नहीं भर पाया जो हो सकता था. शाहरुख खान ने उनको फिर से एक एक्शन फिल्म में देखे जाने की इच्छा को जगा दिया है.

शाहरुख की उपस्थिति और उनका नया लुक दर्शकों को जरूर सिनेमा घरों तक खींच के लाएगा और यही निर्माता चाहते भी होंगे. फिल्म के प्रदर्शन का समय भी उपयुक्त है इसलिए फिल्म की सफलता तो लगभग निश्चित ही है. उम्मीद है शाहरुख की अगली एक्शन फिल्म इससे बेहतर होगी.

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