Pages

Thursday, December 8, 2011

गरम हवा


गरम हवा

गरम हवा




















*****

निर्देशक            :      एम्. एस. सथ्यु
निर्माता             :      इशान आर्य , एम्. एस. सथ्यु एवं अबू सिवनी
लेखक              :      कैफी आज़मी , शमा जैदी
कहानी              :      इस्मत चुगताई
कलाकार            :      बलराज साहनी, फारुख शेख, गीता काक, शौकत
                            आज़मी, ए. के. हंगल, दीनानाथ जुत्सी
संगीत              :      बहादुर खान वारसी  
कैमरा              :      इशान आर्य
प्रदर्शन तिथि      :      १९७३
अवधि              :      १४६ मिनट
भाषा               :      हिंदी और उर्दू 

हिंदी सिनेमा के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की कतार में गरम हवा सबसे कम लागत में बनी फिल्मों में से एक होगी । १९७३ में प्रदर्शित इस फिल्म की लागत ८ लाख रूपए के आस पास थी । यह पहली फिल्म थी जिसने विभाजन के विनाश के बाद फैली हुई  एक अजीब सी शांति के भीतर जा कर जांच पड़ताल की । एम. एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित यह फिल्म भारतीय सिनेमा में कला फिल्मों को जन्म देने वाली फिल्मों में से एक है ।
फिल्म प्रसिद्ध लेखिका इस्मत चुगताई के एक अप्रकाशित कहानी पर आधारित है । आगरा में रह रहा एक जूते का व्यापारी सलीम मिर्ज़ा (बलराज शाहनी) जो विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं जाना चाहता और भारत में ही रहना चाहता है । सलीम मिर्ज़ा की लड़की अमीना अपने ही चचेरे भाई कासिम (जमाल हाशिम) के साथ प्यार करती है और दोनों शादी भी करना चाहते हैं । अन्य भारतीय मुसलमानों की तरह सलीम मिर्ज़ा के रिश्तेदार भी एक एक करके पकिस्तान रवाना हो रहे है और कासिम भी अपने पिता के साथ पकिस्तान जाता है, इस वादे के साथ की वो वापस आ कर आमिना से निकाह करेगा । 
सलीम मिर्ज़ा दुखी मन से सबको विदा कर रहे हैं इस उम्मीद में कि, एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा । सलीम मिर्ज़ा अपने बड़े बेटे के साथ अपने व्यवसाय को चलाने में दिक्कत का सामना कर रहा है क्यूंकि उसे आज अपने उन अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है जो कल तक उसे आसानी से मुहैय्या थे, जिसकी वजह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उसका मुस्लिम होना ही है ।  
इसी बीच अपने वादे के अनुसार कासिम निकाह के लिए वापस आता है लेकिन राजनैतिक कारणों से उसे निकाह के पहले ही गिरफ्तार करके वापस पकिस्तान भेज दिया जाता है और ये कासिम की अमीना से आखिरी मुलाक़ात साबित होती है।
दुखी अमीना को एक बार फिर अपना प्यार शमशाद (जलाल आगा) में दिखता है, जो अमीना को हमेशा ही अपनाना चाहता था ।
व्यवसाय में हो रहा नुक्सान और सब जगह से मिल रही मायूसियों की वजह से सलीम मिर्ज़ा का बड़ा बेटा भी पाकिस्तान जाने का फैसला करता है और अब सलीम मिर्ज़ा अपनी बेटी, पत्नी (शौकत आज़मी) और छोटे बेटे सिकंदर(फारूख शेख, जो हमेशा से ही भारत में रहने का पक्षधर है) के साथ भारत में रह जाता है।
अमीना एक बार फिर मायूस है क्युकी शमशाद का परिवार भी पकिस्तान जा रहा ।
एक बार फिर शमशाद भी अमीना से वादा करके जाता है कि वो अपनी माँ को भेजकर उसे पाकिस्तान बुलवा लेगा ।  
पकिस्तान में अच्छा भविष्य मिल सकने की उम्मीद, भारत में उसके साथ हो रहा भेदभाव, घर से बेघर हो जाने और दूसरी तरफ बेटी का गम सलीम मिर्ज़ा की हिम्मत तोड़ देती है और इन परिस्थितियों में वो अपना आखिरी फैसला लेता है । 
फिल्म की मूल भावना में विभाजन और गाँधी जी कि हत्या के बाद देश में मुस्लिम समुदाय में हो रही उथल पुथल और उनके प्रति सोच में आ रहे बदलाव को दिखाना है, जिसमे निर्देशक एम. एस. सथ्यू पूरी तरह सफल रहे है. हालाँकि ये उनकी पहली फिल्म थी लेकिन ऐसा फिल्म देखने के दौरान कभी नहीं लगता । कम लागत में किसी भी फिल्म को समेटना अपने आप में ही एक चुनौती होता है । सथ्यू ने निहायत ही नाजुक मामलों को बड़ी संजीदगी से सम्भाला है । सलीम मिर्ज़ा बैंक मेनेजर और मकान मालिक से बात करते वक्त तथा सिकंदर नौकरी के साक्षात्कार के दौरान, सीधे कैमरे पर बात करता है और सामने वाले व्यक्ति को नहीं दिखाया जाता । ये बहुत ही प्रभावशाली द्रश्य है जो न सिर्फ सीधे आप से सवाल करते हैं बल्कि ये भी दिखाते हैं कि कैसे कुछ रीढविहीनलोग परदे के पीछे रहकर और अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम देकर अन्याय हो जाने देते हैं । 
फिल्म कि पटकथा कैफी आज़मी और शमा जैदी ने लिखा है । फिल्म के संवाद बहुत ही आम भाषा में हैं और सभी परिस्थितियों का पूरी तरह खुलासा करने में सक्षम हैं. फिल्म मुस्लिम समाज के भीतर और उनके प्रति हो रहे हर तरीके के बदलाव और सोच के सभी पहलुओं को बखूबी छूती है ।

१)      जहाँ एक ओर कुछ लोग सिर्फ मुस्लिम होने कि वजह से पकिस्तान जा रहे थे वही हिंदुओं के प्रति विश्वास आज भी कायम है जैसा कि एक मुस्लिम टाँगे वाला कहता है कि यहाँ के हिंदू भाई बहुत अच्छे है वो चमड़े के धंदे को हाँथ भी न लगायेगे ।
२)      वही दूसरी ओर एक हिंदू टाँगे वाला सलीम से ज्यादा पैसे कि मांग करता है और बदले में कहता है कि कम पैसे में जाना हो तो पकिस्तान चले जाओ ।
३)      बात सिर्फ कुछ हिन्दुओ कि ही नहीं बल्कि कुछ मौका परस्त मुसलमानों कि भी है, कासिम मिर्ज़ा का पिता जो मुसलमानों का नेता है और अंत तक भारत में रुकने का वादा कर चुपचाप ही पकिस्तान चला जाता है ।   
४)      एक और वर्ग है जो पकिस्तान के बनने के पक्ष में था लेकिन अब कांग्रेस में शामिल हो देश में ही रहने में भलाई समझता है ।
५)      वही दूसरी ओर देश के पढ़े लिखे नौजवानों के लिए समस्याएँ धर्म देख कर नहीं आ रही हैं बल्कि बेरोजगारी सबके हिस्से में है और एक शिक्षित मुस्लिम नौजवान (फारूक शेख) अपनी असफलता को सिर्फ धार्मिक भेदभाव बताकर मैदान छोड़देने में यकीन नहीं रखता ।
६)      पाकिस्तान के प्रति अविस्वास भी है जिसके लिए फिल्म में कासिम मिर्ज़ा अपने भतीजे को समझाते हुए कहता है कि पकिस्तान में उन्हें पतंग उड़ाने कि इज़ाज़त नहीं है जो पतंग के कट जाने पर रोते हैं ।
७)      ऊंचे ओहदों पर बैठे कुछ मुस्लिम भी अपनी वफ़ादारी के प्रदर्शन में मुस्लिम के साथ ही भेदभाव कर रहे हैं ।
८)      साथ साथ अमीना कि कहानी विभाजन का आम जिंदगी में पड़ने वाला असर भी दिखाती है ।
 सिनेमेटोग्राफर ईशान आर्या जो इस फिल्म के निर्माताओं में से एक थे, ने आगरा और फतेहपुर सीकरी के दृश्यों को अच्छे से फिल्माया है । ईशान आर्य ने एडिटर के काम को आसान किया इसमे बहुत सारे द्रश्य आइसे हैं जिसमे कोई कट नहीं है । फिल्म में एक कव्वाली है जिसका संगीत और फिल्मांकन दोनों ही बेहतर हैं. 
फिल्म में अदाकारी सबसे ज्यादा काबिल-इ-तारीफ़ है । सभी कलाकारों ने बेहद उम्दा अभी ने किया है । गीता काक ने एक आम मुस्लिम लड़की का किरदार अच्छे से निभाया है । फारुख शेख जिनकी ये पहली फिल्म थी शौकत अजमी जलाल आगा, दीनानाथ जुत्सी , जमाल हासिम सभी अपनी जगह अच्छे हैं । दादी की भूमिका में एक स्थानीय महिला बदर बेगम को लिया गया जिसने एक मंझे हुए कलाकार की तरह ही काम किया औए उसकी ज़बान में एक स्थानीय महक और हास्य दोनों है । लेकिन जिस कलाकार के लिए ये फिल्म देखी जानी जरूरी है वे हैं बलराज शाहनी. किसी भी महान कलाकार का एक सबसे अच्छा काम बता पाना मुश्किल ही है फिर भी ये कहा जा सकता है की बलराज शाहनी के ये सबसे उम्दा कामों में से एक है ।
बलराज शाहनी हमेशा ही प्रतिकियातमक द्रश्यो में बिना संवाद के ही अपनी हाव भाव से सब कुछ कह देने वाले कलाकार है। फिर वो बैंक मेनेजर के सामने हो किराए का मकान ढूँढ रहे हों या अपने बड़े बेटे की बातो को सुनकर जवाब ना दे पा रहे हों. अफ़सोस की ये महान कलाकार अपनी इस महान अभिनय को देखने के लिए जिंदा न रहा। 
फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमे सदभावना के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार और तीन फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिले ।             

फिल्मों को अपने विवादस्पद विषयों कि वजह से प्रतिबंधित करना भारत में नया नहीं है बल्कि ये फिल्म तो एक कदम आगे ही है, फिल्म के विवादित हो जाने कि सम्भावना ने इसके निर्माता को फिल्म बीच में ही छोड़ देने पर मजबूर किया और एन.एफ.डी.सी. के सहयोग से इस फिल्म को पूरा किया गया । बाद में प्रदर्शन के पहले निर्देशक को ये फिल विभिन्न दलों के राजनेताओं को दिखानी पड़ी । आज के सन्दर्भ में भी ये फिल्म एक सबक है । फिल्म के निर्मातों का मार्क्सवादी विचार का होना फिल्म के अंत में परिलिक्षित होता है ।

समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की जिम्मेदारी है ।
आज हम जो पेड़ काट रहे हैं उनके बीजों को हम इस फिल्म में बोते हुए देख सकते हैं।       
                                                        

No comments:

Post a Comment