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Thursday, December 8, 2011

नया दौर

नया दौर






















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बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्म जगत के उन महान निर्देशकों में से हैं जिन्होंने मनोरंजन को हमेशा वर्तमान की समस्या से जोड़ के समाज के लिए एक सन्देश और समस्या का हल देने का प्रयास किया है। नया दौर फिल्म भी इस श्रंखला की एक कड़ी है और अपने उद्देश्य में पूर्णतया सफल होती है।
वैसे तो 50 साल पहले बनी एक एतिहासिक फिल्म की आज समीक्षा करना बहुत मुश्किल है, लेकिन इस फिल्म की यही सबसे बड़ी खासियत है कि दौर कोई भी हो ये फिल्म नयी ही लगेगी।
1950 का दशक भारत के नव-निर्माण का दशक रहा है! नवनिर्माण और नए विचारों को हमेशा ही वर्तमान परिस्थितियों से एक जद्दोजहद करनी पड़ी है। क्योंकि भारत ने तब तक मशीनीकरण के परिणाम को नहीं देखा था इसलिए देश में हो रहा मशीनी और उद्योगीकरण जनता में एक नयी बहस को जन्म दे रहा था।
फिल्म की कहानी आजादी के पश्चात देश में हो रहे मशीनीकरण और मानव के बीच हो रही बहस पर आधारित है ।
फिल्म का नायक ( दिलीप कुमार ) एक तांगेवाला है जो गाँव में अपनी माँ और बहन के साथ रहता है। गाँव में आजीवका के दो ही साधन है एक लकड़ी का कारखाना और दूसरा तांगा। समस्या उत्पन्न होती है कारखाना मालिक के बेटे (जीवन) के कारखाने में मशीन लगवाने और तांगे के विरुद्ध मोटर गाडी लाने से। इस समस्या का कोई हल निकलता ने देख नायक कारखाने के मालिक के बेटे से एक बहुत ही कठिन और लगभग हारी हुए शर्त लगाता है। और इस शर्त में गाँव वाले नायक की सहायता करते हैं।
एक ओर मशीनीकरण जहां मालिक को फायदा पहुंचा रहा है वही कामगार को बेरोजगार कर रहा है । पटकथा की विशेषता इस बात में है कि फिल्म का खलनायक आम खलनायको की तरह फिल्म की नायिका पर बुरी नज़र रखने वाला नहीं बल्कि मशीनीकरण के माध्यम से विकास की बात करता है। इतना ही नहीं गाँव की जनता भी विकास के नाम पर पीछे नहीं हटती बल्कि दोनों ही तरीकों से होने वाले नफे नुकसान को समझना चाहती है ।
लेकिन फिल्म को सिर्फ एक समस्या पर बनी फिल्म ही मान लेना इसको एक संकीर्ण दायरे में समेटना होगा ! ये खूबसूरत प्रेम त्रिकोण है ! जिसमे दिलीप कुमार और वैजंतीमाला की केमेस्ट्री देखते बनती है !
नायक की भूमिका में दिलीप कुमार ने निहायत ही उम्दा अभिनय किया है। दिलीप कुमार ने अपने अभिनय में हमेशा ही बारीकियों का ख्याल रखा है। उनकी चहरे का भाव और उनकी उठने वाली भौवें कई संवाद कर जाती हैं। इस फिल्म में किये गए अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिए दिलीप कुमार को फिल्म-फेयर के बेस्ट-एक्टर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था। वैजन्तीमाला बेहद खूबसूरत लगी हैं। अपने नृत्य के लिए प्रसिद्ध वैजंतीमाला ने इस फिल्म में बेहद साधारण लेकिन मनमोहक नृत्य किया है। फिल्म में रजनी (वैजंतीमाला) का पात्र अपनी पहचान रखता है और अपने विचार भी। वो दो दोस्तों की दोस्ती पर बलि चढ़ने को तैयार नहीं है और अपना फैसला सुनाने में सक्षम है। दोस्त की भूमिका में अजित ने न्याय किया है। जानी वाकर का अभिनय हमेशा की तरह बेहतर है।
कामिल राशिद द्वारा लिखे बेहतरीन संवादों को उतनी ही सादगी से परदे पर उतारा गया है। ओ पी नैय्यर द्वारा निर्देशित, साहिर के लिखे गीत आज भी लोकप्रिय है। ओ. पी. नैय्यर को इस फिल्म के लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी दिया गया। फिल्म के सभी गाने कर्णप्रिय हैं लेकिन उडें जब जब जुल्फें तेरीसबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ। पंजाबी लोक संगीतों पर आधारित गानों के साथ साथ नैय्यर जी का चिरपरिचित तांगा गीत (मांग के साथ तुम्हारा) भी है , लेकिन जो गाना फिल्म की मूल-भावना को दर्शाता है वो है साथी हाथ बढ़ाना इसी फिल्म के साथ आशा जी भी मुख्य गायिकाओं की श्रेणी में आ गयी।
मूलतः श्याम श्वेत में प्रदर्शित इस फिल्म को 2007 में रंगीन में प्रदर्शित किया गया ।



निर्देशक:
बी.आर.चोपड़ा
निर्माता:
बी.आर.चोपड़ा
कलाकार:
दिलीप कुमार, वैजन्ती माला, अजित
लेखक:
अख्तर मिर्जा, कामिल रशीद
संगीत:
ओ.पी.नय्यर
फिल्म रिलीज़:
1957

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