एक डॉलर के अगर 50 रूपए मिलते हों फिर भी 51 रूपए एक डॉलर से ज्यादा होंगे । कहने का मतलब ये है की अगर आप चाहते हैं कि आपकी फिल्म डॉलर से भी ज्यादा कमाई करे तो फिर सिनेमा, सिंगल स्क्रीन जाने वाले दर्शकों के लिए ही बनाना होगा वो भी चुलबुल पांडे (सलमान खान) के साथ।
एक फिल्म की कहानी लिखना शायद कम मेहनत का काम होगा बनिस्पत किसी दबंग जैसी फिल्म में कहानी ढूँढना। चुलबुल पांडे का तबादला लाल गंज से कानपुर हो चुका है। अब दबंग पांडे-2 सबकुछ वैसा ही करेंगे जैसा उन्होंने दबंग में किया था। अगर पिछली 2 लाईन्स को आप कहानी मानने को तैयार हैं तो बस यही है कहानी।
फिल्म की पठकथा और निर्देशन के विषय में ये कहा जा सकता है कि, ऐसा कुछ समझने के लिए आप को पास के सिंगल स्क्रीन थियेटर जाना होगा, और दुसरा ये कि जिस टैक्सी से मैं थियेटर गया उस टैक्सी वाले ने फिल्म मुझसे पहले ही देख रखी थी। उसका कहना है कि साहब .. हीरो है तो बस "भाई"।
मुझे ये जानना था की अरबाज़ के निर्देशन में और भी कुछ ख़ास बात है क्या? इसका जवाब मिला थियेटर के बाहर एक पान की दूकान पर। पान वाले ने बताया कि "भाई अकेला हीरो है जिसके फिलम में, बोले तो टिकिट खिड़की पर आज भी पुलिस लगता है"।
सलमान की फिल्मों में एक्शन टिकिट खिडकी से शुरू होता है और परदे पर ढाई घंटे चलता है।
निर्देशक निर्माता और पांडे जी तीनो लोग इस बात को समझ चुके हैं कि दूसरा रजनीकांत दक्षिण में नही तो मुंबई में तो बनाया ही जा सकता है। माफ़ कीजिये .. बन चुका है।
ना जाने कब तक हम पांडे जी कि फिल्मों की तारीफ़ में ये कहते रहेंगे कि "फिल्म मनोरंजक है लेकिन दिमाग घर में छोड़कर जाईये"।
एक आखिरी गुजारिश ... "अब बस भी कीजिये पांडे जी"
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