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Sunday, January 20, 2013

Matru Ki Bijlee Ka Mandola




विशाल भारद्वाज एक बड़े फिल्मकार हैं, और उनकी फिल्मों को देख कर लग रहा है कि जिस कैनवास और मुद्दे कि फिल्म वो बनाना चाह रहे हैं उसके लिए उनकी २ फिल्मों के बीच शायद और ज्यादा वक्त दरकार है
जहां तक कलात्मक स्वतन्त्रता का सवाल है उसकी हद इस बात पर निर्भर करती है कि आप ने इस स्वतन्त्रता का किया क्या? अफ़सोस विशाल ज्यादा कुछ नहीं कर पाए
नेता, पुलिस, अपराधी और उद्योगपतियों का जमावडा कितना घातक हो सकता है, बात यही थी ऐसी बातें हलके फुल्के अंदाज़ में की जाए तभी इसका असर होता है यहाँ तक विशाल का अंदाज़ सही था लेकिन अंदाज़ इतना भी हल्का नहीं होना चाहिए की फिल्म का फुल्का बन के रह जाए
मटरू (इमरान खान) मंडोला का ड्राईवर है और मंडोला की लड़की है बिजली (अनुष्का शर्मा) मंडोला प्रदेश की मुख्यमंत्री देवी (शबाना आज़मी) के साथ सांठ गाँठ करके गाँव के इकोनोमिक जोन वाली ज़मीन पर अपनी फैक्ट्री खोलना चाहता है मंडोला एक शराबी है जो शराब के नशे में एक उदार दिल इंसान बन जाता है और अपने ही खिलाफ गाँव वालो को भड़काता है  
मिलने वाली जायदाद को देखते हुए देवी अपने बेटे बादल (आर्य बब्बर) की शादी बिजली से कराना चाहती है जिसमे मंडोला का भी राजनैतिक फायदा है
इस राजनैतिक खेल में गाँव वालो की ज़मीन हथियाई जा रही है जिसको रोकने के
लिए गाँववालों के साथ माओ है बाज़ी कभी सरकार और कभी गाँव वालो के तरफ आती जाती है
 
अभिषेक चौबे और विशाल भारद्वाज पठकथा लिखने में शायद इस बात पर मात खा गए की फिल्म को किस हद तक गंभीर रखा जाए और किस हद तक कॉमेडी लेकिन गंभीर मुद्दों को कोमेडी में पिरोने का प्रयास सराहनीय था हालांकि फिल्म १९४० के एक नाटक Mr Puntila and his Man Matti से काफी प्रभावित लगती है लेकिन इसमे अभिषेक और विशाल ने अपने रंग भरे हैं
जहां तक निर्देशन का सवाल है विशाल अपने तरह के अकेले ही निर्देशक हैं और वो बतौर निर्देशक अपने स्तर का अहसास करा ही देते हैं हालांकि इस बार हरियाणा की प्रष्ठभूमि थी लेकिन उन्होंने संवादों को गालियों से बचाया और साथ साथ शब्दों का बड़ा ही अच्छा उपयोग भी किया है जैसे भाग झोपड़े से आंधी आयी
बतौर संगीत निर्देशक विशाल भारद्वाज ने कई रंग भरे हैं, गीत के बोल सुनकर ही पहचाना जा सकता है की ये काम गुलज़ार का है
कार्तिक विजय की सिनेमेटोग्राफी एवं श्रीकर प्रसाद की एडिटिंग अच्छी है


अभिनय की द्रष्टि से फिल्म पूरी तरह पंकज कपूर के ही इर्द गिर्द घूमती है, पंकज कपूर ने अच्छा अभिनय किया है और इससे कम की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है शबाना आज़मी ने अपनी स्तर का काम किया है और एक दो दृश्यों में उन्होंने कमाल ही किया है लेकिन ये कहना होगा की इमरान खान का ये अभी तक का सबसे उम्दा अभिनय है विशाल ने ये बात का ख्याल बराबर रखा है की इमरान को कितनी ढील देनी है अनुष्का अपने कम्फर्ट ज़ोन में हैं,  उन्होंने जो पहली फिल्म में किया था, और जो पिछली फिल्म में किया था, और जो इन दोनों फिल्मों के बीच में किया था, वही उन्होंने इस फिल्म में भी किया है।  अभी तक उनके अभिनय में कोई दूसरा रंग देखने को नहीं मिला है आर्या बब्बर भी फिल्म में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं
फिल्म एक बार देखे जाने के काबिल है और हर किसी के लिए नहीं है इस बात का भी सुकून है की विशाल जैसे निर्देशक आज भी सौ करोड के रेस में नहीं हैं इसलिए अच्छी फिल्मों की उम्मीद बराबर की जा सकती है
एक आखिरी सवाल कही फिल्म ये तो नहीं कहती कि माओ सचमुच किसानो का दोस्त है??
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Sunday, December 2, 2012

तलाश





आमिर खान का फिल्म में होना जहां फिल्म की सफलता की गारंटी बन चुका है वही आमिर की उपस्थिति से मानदंड इतने ऊंचे हो जाते हैं कि सर्वोत्तम से कम कुछ भी नहीं तलाश के साथ भी यही हुआ

तलाश कहानी है पोलीस इंस्पेक्टर शेखावत (आमिर खान) की जो अपने बेटे की मौत का खुद को जिम्मेदार समझता है और इसी अंतर्द्वंद में वो अपनी पत्नी रोशनी (रानी मुखर्जी) के साथ रह रहा है, लेकिन फिल्म कि मुख्यधारा में जो कहानी चल रही है उसमे एक फिल्मस्टार की रहस्यमय परिस्थितियों में एक कार एक्सीडेंट में मौत हो जाती है जिसकी तहकीकात में पुलिस के सामने कई राज़ खुलते जाते हैं और कहानी में रोज़ी (करीना कपूर), तैमूर (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के साथ और भी कई पात्र आते हैं फिल्म की रोचकता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आप को फिल्म के बारे में कम से कम जानकारी हो इसलिए बेहतर है कि फिल्म के कहानी कि इससे ज्यादा बात ना कि जाए

जोया अख्तर और रीमा कागती की लिखी कहानी काफी सधी हुयी है और बराबर आपको कहानी के भीतर ही रखती है रीमा की पिछली फिल्म भी (हनीमून ट्रावेल्स) उनकी कहानी के विशेष अंत के प्रति उनकी पसंद को दर्शाती है फिल्म के संवाद जो फरहान अख्तर और अनुराग कश्यप ने लिखे हैं, एक बड़ी हिंदी फिल्म के बनाए हुए पैमाने पर तो कोई विशेष नहीं है लेकिन फिल्म की मांग भी यही थी की परदे पर आम जिंदगी जीने वाले कलाकार भारी-भरकम संवाद बोलते नज़र नहीं आने चाहिए

हालांकि आमिर के द्वारा अभिनीत फिल्म में निर्देशक की तारीफ़ करते वक्त एक असमंजस बना रहता है लेकिन फिर भी यही कहा जाएगा रीमा की ये फिल्म १९६० के दशक के बाद हिंदी में बनी सस्पेंस फिल्मों में एक बेहतरीन फिल्म है सस्पेंस फिल्मों की खासियत यही होनी चाहिए की ना सिर्फ राज़ खुलने के बाद वो सभी सवालों का जवाब दे बल्कि फिल्म शुरू से ही हमे राज़ को समझने का इशारा भी करे ये दोनों ही बातें तलाश को पिछले कुछ दशको में बनी सस्पेंस और थ्रिलर फिल्मों से अलग करती है निर्देशक ने अपने तीनो ही मुख्य पात्रों को वज़न बढाने की हिदायत दी थी, और उनका ये फैसला भी पात्रों को और आम बनाता है

फिल्म संगीत से ज्यादा बैगराउंड संगीत का महत्व है जिसके लिए रामसंपथ बिलकुल उपयुक्त हैं मुस्काने झूठी हैं गाना फिल्म की शुरुआत में है जो देखने और सुनने दोनों में ही बेहतरीन है फिल्म कि सिनेमेटोग्राफी मोहनन ने कि है जो काफी आला दर्जे की है, पानी के अंदर शूट किया गया सीन (जिसे लन्दन के एक स्टूडियो में शूट किया गया था) काफी अच्छा है

सस्पेंस फिल्मों के राज़ पता चल जाने के बाद उस फिल्म को देखना जैसे बेकार ही होता है लेकिन यहाँ राज़ के अलावा भी एक बड़ी वजह है और वो है अदाकारी अब वो चाहे आमिर के सहयोगी बने राज कुमार यादव ही क्यों ना हो अय्या जैसी फिल्मों में देखने बाद रानी को इस फिल्म में देखना सुखद है रानी ने इस फिल्म के माध्यम से बताया कि एक अच्छे कलाकार को भी खुद कि प्रतिभा दिखाने के लिए एक अच्छी फिल्म या निर्देशक की तलाश होती है करीना कपूर का अभिनय (हाव-भाव) तो ठीक है, लेकिन इस फिल्म में समझ आया की वो जो हर दूसरी फिल्म में करती हैं दरअसल उस अभिनय कि जरूरत यहाँ थी नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने बेहतरीन काम किया है लेकिन इससे कम की उम्मीद उनसे की भी नहीं जा सकती क्युकी ना सिर्फ वो अपने कम्फर्ट ज़ोन में थे बल्कि उनके पात्र और अभिनय ने सलाम बॉम्बे के रघुवीर यादव की भी याद दिला दी  
बात करे आमिर खान की तो सिर्फ यही कहा जाना चाहिए कि आमिर खान ने अभिनय में अपने बनाये मानदंड के अनुरूप ही काम किया है


सिर्फ एक टीस रह जाती है कि आमिर अगर कोई सस्पेंस फिल्म करे (२ साल के बाद), तो क्या इससे भी बेहतर कि उम्मीद करना वही होगा जैसा सचिन से हर मैच में शतक की उम्मीद करना

Saturday, September 15, 2012

BARFI!





3.5 (Three & Half Star)
***

कहते हैं कि प्रयास अच्छा हो तो भगवान भी साथ देते है और हुआ भी वही की एक खूबसूरत फिल्म की शुरुआत में आपको तलाश का ट्रेलर देखने को मिलेगा तो जैसा की राज खुल चुका है जी हाँ बर्फी एक देखने योग्य फिल्म है

बर्फी (रनबीर कपूर) जो बोल और सुन नहीं सकता और जिसे देख कर चार्ली चैप्लिन और राजकपूर की याद आती है, दार्जिलिंग में अपने पिता के साथ रहता है कलकत्ता से आयी हुए एक लड़की श्रुति (इलीना डीक्रूज) जिसको देखते ही बर्फी उससे अपने प्यार का इज़हार करता है, थोड़ा इनकार के बाद (शायद इसलिए क्युकी श्रुती की सगाई हो चुकी है और जल्दी ही शादी होने वाली है) श्रुती भी बर्फी से प्यार करने लगती है लेकिन श्रुति अपनी माँ के समझाने और हिम्मत ना होने कि वजह से बर्फी का साथ छोड़ शादी कर लेती है इधर बर्फी को अपना प्यार उसके बचपन कि दोस्त झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) में मिलता है जो ऑटिस्टिक है फिल्म बर्फी और झिलमिल के स्वार्थहीन प्यार कि कहानी है, जहां भावनाएं ही महत्वपूर्ण हैं इस कहानी के पीछे एक और कहानी भी है, जहां झिलमिल का किडनैप हो गया है

जहां तक फिल्म की स्क्रिप्ट का सवाल है फिल्म आप को बाँध के रखती है फिल्म का नायक जो बोल नहीं सकता वो कही भी अपनी बात को कह नहीं पाया ऐसा नहीं लगता, कही कही तो ऐसा लगता है कि ना बोल पाना ही शायद अपनी बात को पूरी संवेदना के साथ बता पाने कि क्षमता देता है फिल्म शुरू से ही नायक के माध्यम से आप को हँसाना और गुदगुदाना शुरू कर देती है, बर्फी आप का अपना है वो ऐसा है जिसकी गलतियां बार बार माफ की जा सकती हों फिल्म के दो मुख्य पात्र असामान्य रूप से किसी बीमारी या लाचारी से ग्रस्त हैं फिर भी फिल्म में रिश्ते और संवेदनाए ही मुख्य है और बीमारी कही भी आगे नही आती फिल्म की रफ़्तार जैसे ही थोड़ा धीमी पड़ती है सही समय पर मध्यांतर आ जाता है फिल्म में कई सारे बेहतरीन सीन है चाहे वो घडी पीछे करना हो, प्रियंका-रणबीर या रनबीर-इलीना के सीन हो या आखिरी सीन हो
फिल्म का लुक बेहद खूबसूरत है, लोकेशन बहुत अच्छे हैं
वही कुछ बाते ऐसी है जैसे बर्फी की मदद के लिए श्रुति का घर छोड़ देना, झिलमिल से बर्फी के इतने लगाव की वजह साफ़ ना होना, (और श्रुति से भी) या श्रुती से शुरू में इतना लगाव होने पर भी बाद में उसके लिए कोई भावना ना होना, ये सवाल पैदा करती हैं
प्रियंका चोपडा का रोल शायद उनके प्रियंका चोपडा होने कि वजह से थोड़ा खींचा गया लगता और इसी वजह से ना सिर्फ फिल्म धीमी होती है, और कही पर थोड़ा उबाऊ भी होती है और इलीना का कैरेक्टर जिसे थोड़ा और स्थापित किये जाने कि जरूरत थी वो हो नहीं पाया

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बेहतरीन है और रवि वर्मन ने हर एक फ्रेम को खूबसूरत बनाया है फिल्म का लुक सत्तर के दशक का ही लगता है प्रीतम का संगीत फिल्म को और बेहतर बनाता है

निर्देशक अनुराग बासु मानवीय संवेदनाओं को उभारने में हमेशा से माहिर रहे हैं और इस फिल्म में उन्होंने ऊंचाईयों को छुआ है उन्होंने फिल्म के हर पहलू को संभाला है
प्रतिकूल परिस्थितियों में प्यार को बढते दिखाना अनुराग कि खासियत रही है
मेरे मुताबिक़ ये फिल्म संजय लीला भंसाली को जरूर देखना चाहिए

रनबीर कपूर फिल्म दर फिल्म खुद को स्थापित करते जा रहे हैं जहां उनके पात्र में चैप्लिन और राजकपूर कि झलक दिखती है वही रनबीर ने खुद को इनकी नक़ल करे जाने के इलज़ाम से कोसो दूर रखा है, यहाँ तक कि उन्होंने निश्चित तौर से अपने अभिनय में खुद के ही रंग डाले हैं
प्रियंका चोपड़ा के अभिनय कि तारीफ़ करनी होगी, ज्यादा इसलिए कि उन्होंने कुछ ज्यादा करने कि कोशिश नहीं की अलबत्ता वो कहीं कहीं हाँथ से बाहर जाती दिख रही थी, लेकिन यही निर्देशक का कमाल है कि उन्होंने प्रियंका को सीमा में ही रखा
इलीना कि ये पहली हिंदी फिल्म है लेकिन वो दक्षिण भारत की स्थापित अभिनेत्री है और इस फिल्म कि सूत्रधार भी उनमे एक ताजगी नज़र आई और उनका रोल उनके अच्छे लगने कि सीमा के अंदर ही है
सौरभ शुक्ला ने नियाहत ही उम्दा काम किया है वो नायक के खिलाफ हैं लेकिन सहानुभूती उनके चेहरे पर है

कुल मिलाकर बर्फी एक ना छोड़े जाने वाली फिल्म है और इसे देखने की कई वजहे हैं
बर्फी आप को, आप सब को मुस्कान के साथ ही घर भेजेगा

3.5 (Three & Half Star)
***
 एक नज़र इस पे भी... 

Sunday, September 2, 2012

JOKER (जोकर)



2 Star (**)
आज कल जिस तरह की फ़िल्में सफल हो रही हैं और बेहिसाब पैसा कमा रही है, ऐसे दौर में भी अगर कोई फिल्म बड़े बज़ट और सितारों के होते हुए भी पसंद ना की जाए तो लानत है

जोकर कहानी है अगस्त्या (अक्षय कुमार) की जो अमेरिका में एक वैज्ञानिक है और एक ऐसे मशीन के निर्माण में व्यस्त है जो एलियंस से संपर्क कर सके इस बात के लिए अगस्त्या पर पैसा लगाने वाली कंपनी का दबाव है और अब उसके पास एक महीने की मोहलत है इस प्रयोग को पूरा करने के लिए अगस्त्या को भारत में उसके गाँव पगलापुर से सन्देश आता है कि उसके पिता की तबियत ठीक नहीं है अगस्त्या अपने साथ रहने वाली दोस्त दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) के साथ पगलापुर आता है, यहाँ गाँव की हालत काफी खराब है और अगस्त्या इन बिगड़े हालात को सुधारने के प्रयास में एक तरकीब का सहारा लेता है जिसके तहत वो दुनिया को ये संदेश पहुंचाता है की पगलापुर में एलियंस ने क्रॉप सर्किल बनाया है अब पगलापुर के ६०० पागल निवासी और देश भर का मीडिया एलियन एलियन खेल रहे हैं

 

फिल्म के निर्माता, निर्देशक, लेखक, एडिटर, संगीत निर्देशक, बैगराउंड संगीतकार, गीतकार, डी. आई. इंचार्ज शिरीष कुंदर ही हैं वे जो जो -कर सकते थे उन्होंने सब किया, पता नहीं वो अभिनय क्यों नहीं करना चाहते कहना होगा कि कुंदर ने कहानी तो ऐसी सोची जो मनोरंजक हो सकती थी, लेकिन ना जाने क्यों वे इतनी जल्दी में थे की (काम का बोझ शायद) कहानी में वो किसी भी बात को समय नहीं दे पा रहे थे सब कुछ चुटकी बजाते हो रहा था शिरीष एक बेहतरीन एडिटर हैं और अपनी पिछली निर्देशित फिल्म की तरह इस बार भी एडिटिंग काफी अच्छी थी फिल्म का लुक आकर्षक है लेकिन स्पेशल इफेक्ट्स बहुत ही साधारण है, बल्कि हास्यास्पद हैं सिनेमेटोग्राफी अच्छी है फिल्म के संवाद औसत दर्जे के हैं और कई जगह आप को हंसा सकते हैं लेकिन अफ़सोस वो कई जगह बहुत कम है

 

फिल्म के शुरुआत में ही चित्रांगदा सिंह पर फिल्माया गया एक आइटम नंबर है आइटम नंबर और चित्रांगदा दोनों ही एक दूसरे के लिए नए हैं इस लिहाज़ से गाने में एक ताज़गी है बाकी गानों के लिए इस लिए कुछ नहीं कहा जा सकता क्युकी टिप्पणी के लिए गानों का याद रह जाना भी जरूरी है


अभिनय कि द्रष्टि से अक्षय कुमार के पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उन्होंने पहले ना किया हो लेकिन फिर भी अक्षय सफल हैं सोनाक्षी की ये सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है लेकिन इसलिए नहीं कि इस बार उन्हें कुछ करने को मिल गया है बल्कि इसलिए कि वे इस बार पूरी फिल्म में हैं और बार बार दिखती हैं काला गूश गुट गुट ये वो शब्द हैं जिसके साथ श्रेयश तलपड़े अपनी पूरी क्षमता के साथ आप को चिढ़ाते हैं विंदू दारा सिंह, असरानी, अवतार गिल, अंजन श्रीवास्तव, संजय मिश्रा और दर्शन ज़रीवाला के बीच आप को मिनीषा लाम्बा पर नज़र रखनी होगी



अक्षय कुमार और शिरीष दोनों को ही जोकर के हश्र से सबक लेने की जरूरत है




Wednesday, August 22, 2012

एक था टाइगर



सलमान खान + कटरीना कैफ + लंबा वीकेंड = एक स्टार (२०० करोड)

अब आप फिल्म देखना चाहे या ना देखना चाहे, लाखो लोग ऐसे हैं जो आप की जगह भी इस फिल्म को देख चुके हैं और देखेंगे
अभिनेता सलमान खान की ये बदकिस्मती है की स्टार सलमान बेहिसाब पैसे कमा के दे रहा है, इसीलिए अब यशराज फिल्म्स और कबीर खान भी उनके लिए लाये तो एक था रजनीकांत (टाइगर)


कबीर खान निश्चित ही इस फिल्म से ज्यादा की काबिलियत रखते हैं, लेकिन सलमान के मिल जाने से निर्देशक और लेखक दिमाग लगाने में अपना दिमाग नहीं खर्चना चाहते जो करेगा शेर ही करेगा की तर्ज़ पर सिर्फ हाँथ बांधे तमाशा देखना चाहते हैं
सलमान की फिल्मों की समीक्षा अब तब ही की जायेगी जब वो खराब ही सही लेकिन कुछ अलग होगी

* (१ स्टार)

Saturday, August 11, 2012

Gangs Of Wasseypur 2


***/5



चलिए इस फिल्म के बाद ये तो पक्का ही हो गया है की भारत-पकिस्तान के बार्डर से ज्यादा गोलियाँ सिर्फ वासेपुर में ही चली हैं लेकिन हाँ गोलियों के अलावा भी फिल्म में बहुत कुछ है जो देखने लायक है, और यही दुआ करनी होगी की ये वार आख़िरी ही होगा

फिल्म के पहले पार्ट में किरदारों को पहचानने की समस्या से जूझ रहे दर्शकों को इस बार कम दिमाग खर्चना होगा फिल्म पहले भाग के आखिरी द्रश्य के साथ शुरू होती है कुछ नए किरदार जैसे परपंडीकुलर और डेफिनिट भी शामिल किये जाते हैं सरदार खान (मनोज बाजपेयी) के दूसरे बेटे फैज़ल (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) ने कमान संभाल ली है, और अब सबके एक एक करके मरने की बारी है बस समस्या ये है की लोग कहानी में नहीं मर रहे हैं बल्कि लोगो का मरना ही कहानी है

यानी कम्प्लीट छीछालेदर



जहां तक निर्देशन का सवाल है अनुराग कश्यप हिंदी फिल्मों के वो निर्देशक हैं जो ना सिर्फ बाकी से जुदा हैं बल्कि उन पर गर्व भी किया जा सकता है उत्तर भारत में पले बढ़े लोग फिल्म के माहौल से खुद को पूरी तरह जुड़ा हुआ पाएंगे शहर की गालियाँ, घर, आँगन, दुकानदार, पुलिस थाना सब कुछ परफेक्ट लेकिन अफ़सोस तब होता है जब हज़ारो छोटी छोटी खूबसूरत बातों को नज़रंदाज़ करके जिन बातों पर लोग ठहाके लगाते या ताली बजाते हैं वो वही गालियाँ हैं
अब दूसरा सवाल ये है की दूसरे भाग में दिखाने को बचा क्या था? दरअसल फिल्म तब बेहतरीन हो जाती जब पूरे साढ़े पांच घंटे को ३ घंटे के अंदर समेटा जाता या फिर एकता कपूर को टीवी में चुनौती दी जा सकती थी फिल्म बेहतरीन निर्देशन के बावजूद इतनी लंबी है की आप किसी के फारवर्ड किये SMS भी पढ़ना चाहेंगे

माना की बिहार, झारखंड में माफिया है, लेकिन किसी का गोली चलाते में रिवाल्वर का धोका दे जाने में ज्यादा सच्चाई दिखती है बजाये एके 47 के जखीरे के अगर DDLJ देखने के बाद किसी को ये कहा जाए की बेटा तुमसे हो नहीं पायेगा (गुंडागर्दी) तो फिर निर्देशक को ख्याल रखना होगा की चोपड़ा-जोहर के सपनो की दुनिया को थोड़ा और सच्चाई से चुनौती दे



अनुराग कश्यप के अलावा इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह नवाज़ुद्दीन हैं गांजे के नशे में डूबी आँखे, दिल की बात कहने के लिए घिग्घी बंधी दशा या फिर हिंदी फिल्म के हीरो की तरह बनने की चाह, नवाज़ुद्दीन हर जगह कमाल हैं एक बेहतरीन अभिनेता को अपने मुकाम की तरफ बढते देखना सुखद है हुमा कुरैशी के चहरे पर आत्मविश्वास है और उन्होंने अपना काम अच्छे से किया है जीशान कादरी का नवाज़ुद्दीन की उपस्थिति में भी अपनी पहचान छोड़ना प्रशंशनीय है तिग्मांशु फिल्म के पहले भाग से भी बेहतर हैं यशपाल का आना पेट में बल पड़ जाने की हद तक हँसने की गारंटी है पियूष मिश्रा एक बार फिर काम के नाम पे खुद को मार रहे हैं



राजीव राय की सिनेमेटोग्राफी काफी उम्दा हैं, एडिटिंग थोडा और पैनी हो सकती थी स्नेहा खानवाल्कर का संगीत अच्छा है लेकिन ये समझ नहीं आया की फिल्म के संगीत में ऐसा क्या है जिसके लिए उनको त्रिनिदाद की यात्रा करनी पड़ी? हालांकि मोहसीना का फैज़ल को सन्तावना देने के लिए गाये जाने वाला गाना काफी हास्यास्पद लगता है पियूष मिश्रा और वरुण ग्रोवर ने बाकी गाने अच्छे लिखे हैं



हालांकि ये समझना मुश्किल है की अनुराग ने ना सिर्फ दुसरा भाग भी बनाया बल्कि फिल्म की लम्बाई में भी कोई समझौता नहीं किया लेकिन गौर किया जाए तो उन्होंने फिल्म के एक डायलाग में कारण बता भी दिया है....
हिन्दुस्तान में जब तक सनीमा है, लोग चू#$या बनते रहेंगे
***/5

Monday, July 9, 2012

बोल बच्चन


बोल बच्चन (1.5 Star)




क्युकी आप अपनी रोज़ाना जिंदगी से परेशान हैं इसलिए आप सिनेमा का टिकट खरीद कर कुछ ऐसा देखना चाहते हैं जिसमे आप को सिर्फ हँसने को मिले और दिमाग ना खर्चना पड़े तो साहब ये वजह है आज कल फिल्मों में किये जा रहे बोल बचन का ऐसे ही बोल बचन करती हुई इस फिल्म का नाम है बोल बच्चन

अब्बास अली (अभिषेक बच्चन) दिल्ली से अपनी बहन सानिया (आसिन) के साथ पृथ्वीराज (अजय देवगन) के गाँव पहुंचता है अब्बास को पृथ्वीराज के घर नौकरी मिलती है लेकिन इसके पहले अब्बास ने एक झूठ बोला है कि उसका नाम अभिषेक बच्चन है, और अब अब्बास को सच छुपा कर रखना है अब देखना ये है की झूठ कब तक चलेगा और बच्चन कब बोलेगा

रोहित शेट्टी को लगता है तीन गोलमाल बनाने के बाद याद आया कि एक गोलमाल (अमोल पालेकर अभिनीत) और भी है और इस फिल्म में रोहित शेट्टी एलीमेंट्स डाल के सफलता पक्की की जा सकती है और रोहित सही भी साबित हो रहे हैं
लेकिन फिल्म की तारीफ़ में दो बाते कही जा सकती है वो ये कि एक समलैंगिग पात्र कि उपस्थिति में भी अश्लीलता से बचने की कोशिश कि गयी है (जैसा की आमतौर पर होता नहीं है ) और फिल्म आपको कुछ जगहों पर हंसाती हैं
लेकिन जो ध्यान देने योग्य बात है वो ये कि अगर दोनों फिल्मो (नयी और अमोल पालेकर अभिनीत) के पात्रों की तुलना की जाए तो हमें अहसास होगा कि हमारे फिल्मों में लेखन (खासकर कामेडी) का स्तर कितना नीचे पहुँच गया है

हिमेश रेशमिया का संगीत कही भी फिल्म के स्तर से ऊपर जाने का प्रयास नहीं करता हाँ बोल बच्चन कि शुरुआत बड़े बच्चन के बोल से होती है, इसलिए ये गाना दर्शनीय है

बच्चनों के बीच फिल्म में बोला अजय देवगन ने ही है, उनके द्वारा बोली गयी अंग्रेज़ी में कुछ हास्य है अभिषेक बच्चन को बहुत कुछ करने के लिए मिला था लेकिन उन्होंने उतना ही किया जितना वो कर सकते थे टीवी से स्टैंड-अप कमीडियन कि तरह शुरुआत करने वाले कृष्णा को फिल्मों में और काम मिल सकता है
अरे हाँ फिल्म में आसिन और प्राची देसाई के हिस्से में भी कुछ है

ये फिल्म भी एक नए खुले क्लब (१०० करोड क्लब) कि सदस्य होने जा रही है, समझना ये है कि क्या ये फिल्मे उतनी पसंद की जाती है जितना ये पैसा कमाती है या फिर ये सब वही वीकेंड बिज़नेस" का तिकड़म है


Monday, June 25, 2012

GANGS OF WASSEYPUR



 GANGS OF WASSEYPUR (2.5 Star)



आईये तीन घंटा के लिए वासेपुर चले अरे भैया सनीमा देखे, गैंग्स आफ वासेपुर

गैंग्स आफ वासेपुर साढ़े पांच घंटे की फिल्म है जिसे 2 भागो में प्रदर्शित किया जाएगाफिल्म आधारित है बिहार में असमाजिक तत्वों का लाठी (आधुनिक हथियार पढ़े) के जोर पर अपनी सत्ता कायम करने पर सरदार खान (मनोज बाजपेयी) ऐसा ही एक गुंडा है जो वहाँ के स्थानीय नेता रामधारी सिंह (तिग्मांशु धुलिया) का दुश्मन है, जिसने सरदार खान के पिता शाहीद खान कि हत्या की थी अब एक तीसरा ग्रुप भी है कुरैशियों का जिसका इस्तेमाल रामधारी सिंह करता है सरदार खान के खिलाफ और इसके बाद है खून खराबा, गाली गलौच और वर्चस्व की लड़ाई

कहानी जित्ता बुचंटी सा लग रहा है ना, सनीमा उत्ते लंबा है एक बार सुरु होता है तो खतम होने का नामे नहीं लेता

जी हाँ फिल्म कि शुरुआत एक प्रभावशाली सीन से होती है उसके बाद फिल्म 1940 से  2005 तक का सफर तय करती है कोयला माफिया से शुरू हुई फिल्म आपके दिमाग और पठकथा पर ऐसी कालिख मलती है कि बहुत कुछ समझ के परे हो जाता है यहाँ तक कि पीछे से बराबर बोल रहे सूत्रधार की समझाईश भी कम पड़ जाती है लेकिन इस कन्फ्युसन के बीच फिल्म के ट्रीटमेंट का पूरा मज़ा लिया जा सकता है अलबत्ता ये जरूर है कि आप को भाषा पर थोड़ा ज्यादा ध्यान रखना होगा और शायद इसीलिए फिल्म के उत्तर भारत में ज्यादा पसंद किये जाने की संभावना है गालियों का जम कर इस्तेमाल किया गया है लेकिन ज्यादातर ये गालियाँ ठूंसी गयी नहीं लगती है, जैसा कि आमतौर पर फिल्मों में होता है फिल्म में कई सीन ऐसे हैं जो अच्छे से फिल्माए और लिखे गए हैं फिल्म में बहुत सारे किरदार हैं जिनको वैसे भी याद रखना मुश्किल होता है ऊपर से ज्यादातर चेहरे भी नए है तीसरे करेला वो भी नीम चढ़ा ये कि कुछ किरदारो को १ से ज्यादा लोग अभिनीत कर रहे हैं इसलिए कौन कब बदल जाता है पता ही नहीं चलता

वैसे तो ये अनुराग कश्यप का पसंदीदा विषय है और उन्होंने एक निर्देशक के बतौर अच्छा काम किया है, अनुराग कश्यप कि खासियत है की वो फिल्मों में छोटी छोटी बातों का काफी ख्याल रखते हैं, लेकिन शायद वो अपने  दिल के करीब के विषय से कुछ भी निकालना नहीं चाहते थे इसलिए फिल्म अंतहीन से लगने लगती है

फिल्म का संगीत आप का ध्यान अपनी ओर जरूर खींचेंगा, चाहे आप गीत के बोल ना भी समझे सिनेमेटोग्राफी काफी अच्छी है फिल्म को अलाहाबाद, वाराणसी, पटना के साथ साथ और भी कई जगहों पर फिल्माया गया है और बिहार को काफी सच्चाई से परदे पर उतारा गया है फिल्म के संवाद को आम जिंदगी से ही उठाया गया है जो फिल्म को और सच्चाई के पास ले जाते हैं

फिल्म में ज्यादातर एक्टर जैसे मनोज वाजपेयी, पियूष मिश्रा, जयदीप अहलावत, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ये वो है जो पहले ही अपना लोहा मनवा चुके हैं वही रीमा सेन और तिग्मांशु धुलिया ने भी अपने पात्रो को खूब जिया है.. रिचा चड्ढा इस फिल्म कि खोज कही जा सकती है लेकिन अभी उन्हें अच्छी अभिनेत्री कहने से पहले कुछ और इंतज़ार करना होगा

जिस तरह से ये फिल्म अपनी कहानी कहते कहते दर्शकों के धैर्य का इम्तिहान लेने लगती है उसको देखकर यही कहा जा सकता है कि ... डाइरेक्टर साब ठीके कहे थे .... कह के लूँगा