Pages

Sunday, December 23, 2012

DABANGG 2




एक डॉलर के अगर 50 रूपए मिलते हों फिर भी 51 रूपए एक डॉलर से ज्यादा होंगे । कहने का मतलब ये है की अगर आप चाहते हैं कि आपकी फिल्म डॉलर से भी ज्यादा कमाई करे तो फिर सिनेमा, सिंगल स्क्रीन जाने वाले दर्शकों के लिए ही बनाना होगा वो भी चुलबुल पांडे (सलमान खान) के साथ।


एक फिल्म की कहानी लिखना शायद कम मेहनत का काम होगा बनिस्पत किसी दबंग जैसी फिल्म में कहानी ढूँढना। चुलबुल पांडे का तबादला लाल गंज से कानपुर हो चुका है। अब दबंग पांडे-2 सबकुछ वैसा ही करेंगे जैसा उन्होंने दबंग में किया था। अगर पिछली 2 लाईन्स को आप कहानी मानने को तैयार हैं तो बस यही है कहानी।

फिल्म की पठकथा और निर्देशन के विषय में ये कहा जा सकता है कि, ऐसा कुछ समझने के लिए आप को पास के सिंगल स्क्रीन थियेटर जाना होगा, और दुसरा ये कि जिस टैक्सी से मैं थियेटर गया उस टैक्सी वाले ने फिल्म मुझसे पहले ही देख रखी थी। उसका कहना है कि साहब .. हीरो है तो बस "भाई"।

मुझे ये जानना था की अरबाज़ के निर्देशन में और भी कुछ ख़ास बात है क्या? इसका जवाब मिला थियेटर के बाहर एक पान की दूकान पर। पान वाले ने बताया कि "भाई अकेला हीरो है जिसके फिलम में, बोले तो टिकिट खिड़की पर आज भी पुलिस लगता है"।

सलमान की फिल्मों में एक्शन टिकिट खिडकी से शुरू होता है और परदे पर ढाई घंटे चलता है। 

निर्देशक निर्माता और पांडे जी तीनो लोग इस बात को समझ चुके हैं कि दूसरा रजनीकांत दक्षिण में नही तो मुंबई में तो बनाया ही जा सकता है। माफ़ कीजिये .. बन चुका है।

ना जाने कब तक हम पांडे जी कि फिल्मों की तारीफ़ में ये कहते रहेंगे कि "फिल्म मनोरंजक है लेकिन दिमाग घर में छोड़कर जाईये"। 

एक आखिरी गुजारिश ... "अब बस भी कीजिये पांडे जी"

Sunday, December 2, 2012

तलाश





आमिर खान का फिल्म में होना जहां फिल्म की सफलता की गारंटी बन चुका है वही आमिर की उपस्थिति से मानदंड इतने ऊंचे हो जाते हैं कि सर्वोत्तम से कम कुछ भी नहीं तलाश के साथ भी यही हुआ

तलाश कहानी है पोलीस इंस्पेक्टर शेखावत (आमिर खान) की जो अपने बेटे की मौत का खुद को जिम्मेदार समझता है और इसी अंतर्द्वंद में वो अपनी पत्नी रोशनी (रानी मुखर्जी) के साथ रह रहा है, लेकिन फिल्म कि मुख्यधारा में जो कहानी चल रही है उसमे एक फिल्मस्टार की रहस्यमय परिस्थितियों में एक कार एक्सीडेंट में मौत हो जाती है जिसकी तहकीकात में पुलिस के सामने कई राज़ खुलते जाते हैं और कहानी में रोज़ी (करीना कपूर), तैमूर (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) के साथ और भी कई पात्र आते हैं फिल्म की रोचकता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आप को फिल्म के बारे में कम से कम जानकारी हो इसलिए बेहतर है कि फिल्म के कहानी कि इससे ज्यादा बात ना कि जाए

जोया अख्तर और रीमा कागती की लिखी कहानी काफी सधी हुयी है और बराबर आपको कहानी के भीतर ही रखती है रीमा की पिछली फिल्म भी (हनीमून ट्रावेल्स) उनकी कहानी के विशेष अंत के प्रति उनकी पसंद को दर्शाती है फिल्म के संवाद जो फरहान अख्तर और अनुराग कश्यप ने लिखे हैं, एक बड़ी हिंदी फिल्म के बनाए हुए पैमाने पर तो कोई विशेष नहीं है लेकिन फिल्म की मांग भी यही थी की परदे पर आम जिंदगी जीने वाले कलाकार भारी-भरकम संवाद बोलते नज़र नहीं आने चाहिए

हालांकि आमिर के द्वारा अभिनीत फिल्म में निर्देशक की तारीफ़ करते वक्त एक असमंजस बना रहता है लेकिन फिर भी यही कहा जाएगा रीमा की ये फिल्म १९६० के दशक के बाद हिंदी में बनी सस्पेंस फिल्मों में एक बेहतरीन फिल्म है सस्पेंस फिल्मों की खासियत यही होनी चाहिए की ना सिर्फ राज़ खुलने के बाद वो सभी सवालों का जवाब दे बल्कि फिल्म शुरू से ही हमे राज़ को समझने का इशारा भी करे ये दोनों ही बातें तलाश को पिछले कुछ दशको में बनी सस्पेंस और थ्रिलर फिल्मों से अलग करती है निर्देशक ने अपने तीनो ही मुख्य पात्रों को वज़न बढाने की हिदायत दी थी, और उनका ये फैसला भी पात्रों को और आम बनाता है

फिल्म संगीत से ज्यादा बैगराउंड संगीत का महत्व है जिसके लिए रामसंपथ बिलकुल उपयुक्त हैं मुस्काने झूठी हैं गाना फिल्म की शुरुआत में है जो देखने और सुनने दोनों में ही बेहतरीन है फिल्म कि सिनेमेटोग्राफी मोहनन ने कि है जो काफी आला दर्जे की है, पानी के अंदर शूट किया गया सीन (जिसे लन्दन के एक स्टूडियो में शूट किया गया था) काफी अच्छा है

सस्पेंस फिल्मों के राज़ पता चल जाने के बाद उस फिल्म को देखना जैसे बेकार ही होता है लेकिन यहाँ राज़ के अलावा भी एक बड़ी वजह है और वो है अदाकारी अब वो चाहे आमिर के सहयोगी बने राज कुमार यादव ही क्यों ना हो अय्या जैसी फिल्मों में देखने बाद रानी को इस फिल्म में देखना सुखद है रानी ने इस फिल्म के माध्यम से बताया कि एक अच्छे कलाकार को भी खुद कि प्रतिभा दिखाने के लिए एक अच्छी फिल्म या निर्देशक की तलाश होती है करीना कपूर का अभिनय (हाव-भाव) तो ठीक है, लेकिन इस फिल्म में समझ आया की वो जो हर दूसरी फिल्म में करती हैं दरअसल उस अभिनय कि जरूरत यहाँ थी नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने बेहतरीन काम किया है लेकिन इससे कम की उम्मीद उनसे की भी नहीं जा सकती क्युकी ना सिर्फ वो अपने कम्फर्ट ज़ोन में थे बल्कि उनके पात्र और अभिनय ने सलाम बॉम्बे के रघुवीर यादव की भी याद दिला दी  
बात करे आमिर खान की तो सिर्फ यही कहा जाना चाहिए कि आमिर खान ने अभिनय में अपने बनाये मानदंड के अनुरूप ही काम किया है


सिर्फ एक टीस रह जाती है कि आमिर अगर कोई सस्पेंस फिल्म करे (२ साल के बाद), तो क्या इससे भी बेहतर कि उम्मीद करना वही होगा जैसा सचिन से हर मैच में शतक की उम्मीद करना