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Friday, March 30, 2012

AGENT VINOD






जिन फिल्मों को हम देखकर बड़े होते हैं, उनमे से अपनी पसंदीदा फिल्मों को अपने तरीके से बनाने का अवसर हर निर्माता-निर्देशक चाहता है। फिर चाहे वो आपका पसंदीदा कलाकार हो, कहानी हो या हो कोई फिल्म।1978 में इसी नाम से प्रदर्शित इस फिल्म को लिखने के पीछे निर्देशक श्रीराम राघवन कि ललक को समझा जा सकता है। और दर्शकों को ललक है एक अदद भारतीय जासूस कि।


एजेंट विनोद (सैफ अली खान) भारतीय सीक्रेट सर्विस रॉ का एजेंट है और किसी भी ऐसे काम जिसको आसानी से अंजाम न दिया जा सकता हो उसके लिए पूरी तरह उपयुक्त है। फिल्म अफगानिस्तान से शुरू होकर उज्बेकिस्तान, मोरोक्को, मास्को, लातविया, श्रीलंका, सोमालिया, पाकिस्तान, होती हुए लन्दन पहुंचती है.. और भारत भी। फिल्म देखते समय न सिर्फ एजेंट विनोद बल्कि आपको भी ऊपर लिखी सभी जगहों में हो रही घटनाओं को जोड़ने का प्रयत्न करना पड़ सकता है लेकिन जो इन सभी घटनाओं को जोड़ने के कड़ी है वो है  “242” । एजेंट विनोद कजान (प्रेम चोपरा) से मिलने मोरोक्को आ गया है, यहाँ “हमारे विनोद” कि मुलाक़ात डाक्टर रूबी उर्फ इरम बिलाल (करीना कपूर) से होती है (याद रहे कि “हमारे विनोद” के मिजाज़ “उनके बांड” जैसे खुद को परेशानी में डाल लेने कि हद तक आशिकाना नहीं है)।
अब विनोद दरवाज़ा तोडेगा, पलक झपकते ही दुश्मन का काम तमाम करेगा , वीडियो गेम कि तरह कार दौडायेगा, दुश्मन के चंगुल से यु निकल जाएगा और वो भी हंसते हंसते, गोलियों कि बौछार के बीच वो लड़की से ये कहना नहीं भूलता कि “आपकी यात्रा सुखद रही होगी” या गोली चलाकर ये कहना कि “सदा सुहागन रहो”। और हाँ अपना विनोद, बांड कि तरह विभिन्न गैजेट से लैस नहीं है। आधी दुनिया का चक्कर लगाने के बाद विनोद भारत आ कर अपने काम को अंजाम देता है... लेकिन हाँ इस सबके पीछे कौन है वो जानने के लिए लन्दन भी तो जाना है.. और फिर दक्षिण अफ्रीका में समापन। लीजिए हो गया विश्व भ्रमण। मेरा मतलब है फिल्म को देखने कि एक और वजह।


फिल्म कि शुरुआत काफी आकर्षक है और आप कि उम्मीदें काफी बढ़ जाती है... बस यही से समस्या शुरू...फिल्म में हो रही घटनाएं काफी भ्रमित करती है हालाँकि घटनाओं से तारतम्य ना होना भी कोई परेशानी कि बात नहीं क्युकी ना तो फिल्म कि कहानी आप को कही ले जा रही है और ना ही आप कोई राज़ के खुलने का इंतज़ार कर रहे होते हैं । फिल्म कि लम्बाई को भी १५ मिनट के आस पास कम् भी किया जा सकता था । वही दूसरी ओर फिल्म के कुछ हिस्से निश्चित रूप से बेहद आकर्षक है ।  “राब्ता” गाने का फिल्मांकन, फिल्म का शुरूआती द्रश्य, फिल्म के खूबसूरत हिस्सों में से एक है । फिल्म का लुक बेहद आकर्षक है।
एजेंट विनोद के किरदार को निर्देशक ने काफी अच्छे से लिखा है, ये बात इसलिए भी अहम है क्युकी ये एक फ्रेंचाईस है और इसके सीक्वल कि पूरी संभावना है, ये बात अलग है कि एक कमज़ोर कहानी फिल्म को वो स्थान नहीं दिला पायेगी जो इसे मिल सकता था।
श्रीराम राघवन ने “एक हसीना थी” और “जॉनी गद्दार” जैसे उम्दा फिल्मे बनाकर ये तो साबित कर ही दिया है कि वे एक आला दर्जे के निर्देशक हैं और ये फिल्म भी उनकी काबिलियत को दर्शाने के लिए पर्याप्त है।


रस्पुतीन, एजेंट विनोद (टाइटिल गाना) गाना फिल्म में अच्छे लगते हैं, पुंगी पहले ही हिट हो चुका है लेकिन “दिल मुफ्त का” निराश करता है । फिल्म का बैगराउंड संगीत काफी अच्छा है। फिल्म कि एडिटिंग काफी तेज और पैनी है, अफगानिस्तान, मोरोक्को और सोमालिया के दृश्यों में एक विशेष फिल्टर का प्रयोग किया गया जो फिल्म के लुक को और आकर्षक बनाता है। वही सिनेमेटोग्राफी भी तारीफ़ के काबिल है, विभिन्न स्थानों में फिल्माए गए दृश्यों में विभिन्नता बरकरार है, जी निश्चित तौर पर फिल्म को एक अंतर्राष्ट्रीय समानता देती है।


सैफ अली खान उन अभिनेताओं में से हैं जिनके सीखने कि दर सबसे ज्यादा रही है। “दिल चाहता है” के बाद सैफ ने अभिनय कि द्रष्टि से कहा जाए तो सिर्फ आगे ही देखा है। उन्होंने अपने काम को बखूबी निभाया है और निश्चित ही हम अपने सीक्रेट सर्विस एजेंट को आगे भी देखना चाहेंगे और ये इस फिल्म कि सबसे बड़ी सफलता होगी। करीना के पात्र को और बेहतर बनाया जा सकता था लेकिन करीना अपने काम में ठीक हैं । रवि किशन, प्रेम चोपरा, शाहबाज़ खान, आदिल हुसैन और राम कपूर ने अच्छा अभिनय किया है ।




हिंदी फिल्मों को अपना जासूस मिल गया सा लगता है जो ना सिर्फ दुश्मनों के दांत खट्टे करना जानता है बल्कि हमारे परंपरागत प्रतिद्वंदी पकिस्तान के साथ अपने रिश्तों में एक नयी सोच भी रखता है। मुझे पूरा विश्वास है कि विनोद देशभक्ति के नाम पर सिर्फ एक ही देश और धर्म के खिलाफ नहीं लड़ेगा ।

***(३ स्टार)



Saturday, March 10, 2012

KAHAANI

Kahaani


हिंदुस्तान में सैकड़ों ऐसे शहर हैं जिनका अपना रवैय्या ही किसी कहानी से कम नहीं है, जरूरत है तो बस इस बात की, कि आप उस शहर का अपनी कहानी में कैसे उपयोग करते हैं फिल्म कहानी कि कहानी में कलकत्ता भी एक कहानी है

विद्या बागची (विद्या बालन) जो एक गर्भवती महिला हैं, इंग्लैंड से कलकत्ता अपने पति को ढूँढने आती है उनकी इस खोज में राना (परम्ब्रता चट्टोपाध्याय) जो एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर हैं उनकी मदद करते हैं फिल्म कि कहानी में जरा भी खुलासा करना फिल्म देखने वालों के मज़े को किरकिरा करना होगा, इसलिए बस इतना ही कहा जा सकता है कि कलकत्ता में विद्या को ये पता चलता है कि उसके पति के शक्ल का एक व्यक्ति और है और वो भी लापता है अब इस खोज में आप भी शामिल हैं

फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन उनका जिक्र यहाँ करना एक बार फिर कहानी को कही न कही थोडा खोल देना होगा. फिल्म एक सस्पेंस थ्रिलर है और इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि स्क्रिप्ट काफी बाँध के रखती है आप आगे होने वाली घटनाओं को देखने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं हालांकि फिल्म अपने दूसरे भाग में अपनी पकड़ थोड़ी खोती है जरूरत से ज्यादा आने जाने वाले पात्र, आपको थोडा भ्रमित करते हैं फिल्म का अंत आप को हैरान कर देगा वही ये भी कहना होगा कि फिल्म जिस रफ़्तार और मूड से जा रही थी मुझे फिल्म का अंत उसके मुताबिक नहीं लगा हाँ अच्छा जरूर था

निर्देशक सुजॉय घोस का काम अच्छा है, उन्होंने जहा कलकत्ता शहर को कहानी में अच्छे से पिरोया है वही वो विद्या के प्रग्नेंट होने को और अच्छे से उपयोग कर सकते थे कहने का मतलब है कि दर्शक विद्या के प्रग्नेंट होने कि पीड़ा महसूस कर रहे थे और इस पीड़ा को थ्रिलर में और ज्यादा परिवर्तित किया जा सकता था एक थ्रिलर और सस्पेंस फिल्म को देखने में ज्यादा मज़ा तब आता है जब आप वापस जाकर सारे बिंदुओं को जोड़ सके कहने का तात्पर्य है कि आप दर्शकों को ज्यादा से ज्यादा सूचना देकर राज़ को छिपाए रखने में सफल हों, यहाँ ऐसा नहीं है कलकत्ता, बंगाली भाषा, पुलिस के एक नौजवान आफिसर का ड्यूटी से बाहर जाकर सच को खोजने कि कोशिश करना ये सब कुछ फिल्म के अच्छे पहलुओं में से एक है एक राहत कि बात और कि निर्देशक ने पुलिस ऑफिसर का विद्या के प्रति लगाव को प्यार में बदलने कि कोई कोशिश नहीं कि वरना एक गाना तो ठूंसा ही जा सकता था

नम्रता राव ने फिल्म कि एडिटिंग में कुछ नए आयाम दिखाए हैं, वही सत्यजीत पांडे कि सिनेमेटोग्राफी ठीक है फिल्म का पार्श्व संगीत फिल्म के साथ मेल खाता है विशाल शेखर का म्यूजिक साधारण है

ये फिल्म फिर एक बार विद्या बालन के इर्द गिर्द ही घूमती है लेकिन ये फिल्म उनके कंधो पर है ऐसा नहीं है फिल्म अभिनय से ज्यादा दृश्यों और कहानी कहने के अंदाज़ पर निर्भर करती है ये सही है कि विद्या बालन एक अच्छी अभिनेत्री हैं, लेकिन मैं ये बात दावे से कह सकता हूँ कि विद्या बालन का गेटअप( पिछली कुछ फिल्मों में) उनकी अभिनय छमता का सबसे बड़ा तत्त्व है विडम्बना है कि पात्र के जैसा दिखने कि तैयारी (जो किसी भी अभिनेता/अभिनेत्री से न्यूनतम मांग हो सकती है) को अभिनय छमता में परिवर्तित कर दिया गया है, जो उसका सबसे छोटा हिस्सा मात्र है
ये फिल्म बंगाल में काम कर रहे अभिनेताओं के लिए हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के द्वार खोलेगी पुलिस आफिसर कि भूमिका में परम्ब्रत चैटर्जी ने अच्छा काम किया है नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने खान कि भूमिका में एक बार फिर दमदार अभिनय किया है सास्वत चटर्जी जो एक बीमा एजेंट कि भूमिका में हैं उनका विशेष उल्लेख किया जाना जरूरी है एक निहायत ही आम से भी ज्यादा आम लगने वाले व्यक्ति का खौफ पैदा करना ये हिंदी फिल्मो के लिए आम बात नहीं है

तो कुल मिलाकर ये फिल्म देखने योग्य है ये बात अलग है कि फिल्म बड़े सेंटर पर अपेक्षाकृत ज्यादा पसंद कि जायेगी

क्युकी ये फिल्म कलकत्ता में बनी है, एक बंगाली निर्देशक ने बनायी है, रविंद्रनाथ टैगोर कि १५०वीं जन्म दिवस हाल ही में मनाया गया है, ऐसे में निर्देशक को इस बात का ख्याल रखना ही होगा कि एकला चलो रे जैसी कालजयी रचना का अर्थ कही व्यक्तिगत ना हो जाए