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Wednesday, February 1, 2012

Agneepath















हिंदी सिनेमा में एक विशेष दर्शक वर्ग को केंद्रित कर फिल्में बनाना आजकल सबसे कम खतरे की बात है। फिर वो दबंग हो या सिंघम हो या जिंदगी ना मिलेगी दुबारा हो। लेकिन इस तरह की फिल्मों के साथ शायद मुसीबत ये है की ये आधे दर्शकों को आकाश की ऊंचाईयों पर लगती है तो आधे को कीचड में पड़ी बिलबिलाती लगती हैं। लेकिन इन देसी और डालर सिनेमा से हट के भी फ़िल्में हैं जो सभी दर्शक वर्गों में देखी और पसंद की जाती है। अग्निपथ इसी श्रेणी की फिल्म है।  


धर्मा प्रोडक्शन की ये फिल्म अग्निपथ उनकी अपनी ही, इसी नाम से बनाई गयी फिल्म की रीमेक है जी 1990 में प्रदर्शित हुए थी। अग्निपथ (1990) ने पिछले 20 सालो में काफी नाम कमाया और यही नहीं अमिताभ बच्चन जो इस फिल्म के मुख्य पात्र थे उन्हें इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया, लेकिन  अमिताभ बच्चन के जीवन के मील का पथ्थर साबित होने वाली फिल्म के साथ शायद यही एक मात्र बुरी बात जुडी हुए है, वो ये की ये फिल्म बेहद असफल रही और अपनी लागत भी न निकाल पायी।


करन जौहर के पिता की एक निर्माता के रूप में असफलता भी करण के लिए इस फिल्म को बनाने की प्रेरणा ही रही रही होगी। कहने का मतलब है करण जौहर का इसे पुनः बनाने का फैसला व्यावसायीक और भावनात्मक दोनों रहा होगा।


फिल्म की कहानी तकरीबन पुराने फिल्म के जैसे ही है। एक गाँव है मांडवा जहा विजय (मास्टर आरिष भिवंडीवाला) के पिता की ह्त्या कर दी जाती है कांचा चीना (संजय दत्त) के द्वारा। विजय अपनी माँ के साथ मुंबई चला आता है जहा उसके अंदर जल रही बदले की आग उसको राउफ लाला (ऋषि कपूर) के गैंग में शामिल कर देती है. 15 साल बाद अब विजय दीनानाथ चव्हाण बदले के लिए सक्षम है। इतना सक्षम की अब वो हृथिक रोशन बन चुका है. और इस बार वो नाक पर बैठी मक्खी से उड़ने की “गुजारिश”करने वाला नहीं बल्कि नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देता। अब देखना ये है विजय और राउफ लाला के संबंधों का क्या होता है, विजय कांचा चीना से मांडवा ले पाता है या नहीं, लेता है तो कैसे? ये जानने के लिए आप कौन सा सिनेमा जायेंगे ये आप पर निर्भर करता है हाँ ये जरूर है जहाँ भी जायेंगे वहाँ “तलाश”का ट्रेलर आप को बतौर बोनस मिलेगा।


निर्देशक करण मल्होत्रा की तारीफ़ करनी होगी की उन्होंने फिल्म की मूल भावना को जीवित रखते हुए एक एकदम नयी फिल्म बनायी है। हालांकि फिल्म में पुरानी फिल्म के सभी मुख्य दृश्यों को रखा गया है लेकिन फिर भी एक एकदम नयी महक के साथ हैं.


पठकथा ने बराबर अपनी पकड़ बनाए रखी है।कुछ हिस्सों में फिल्म की रफ़्तार कम होती सी दिखती है लेकिन जल्दी ही उस पर काबू भी पा लिया गया है। पियूष मिश्रा के संवाद अच्छे तो हैं लेकिन उनकी सारी अच्छाई संजय दत्त के हिस्से आये संवादों में ही दिखती है। फिल्म में सिनेमेटोग्राफी बहुत अच्छी है, और सीबू सिरिल ने सेट निर्माण कमाल का किया है। एडिटिंग पर थोडा ध्यान दिया जा सकता था क्युकी फिल्म की लम्बाई कुछ ज्यादा है। कुछ बातें और भी है जैसे निर्देशक ने ये नहीं बताया की एक रेड लाईट मोहल्ला अचानक से आदर्श नगर में कैसे परिवर्तित हो गया, एक सीन पहले एक दूसरे से अनजान पात्र अचानक एक दूसरे को पहचान कैसे गए, विजय का अपने अंतिम लक्ष्य को पाने से पहले अपनी ही ताकत को खतम करने का निर्णय, लेकिन सबसे ज्यादा अखरने वाली बात है फिल्म का अंत। कांचा चीना जो इतना बड़ा पात्र है, विजय से उसकी दुश्मनी जिस पर फिल्म की कहानी आधारित है, वो सब कुछ अचानक ही खतम हो जाता है। विजय की कांचा को हारने की सारी योजना धरी की धरी रह जाती है लेकिन “विजय”विजय की ही होती है.। हाँ ये बात जरूर है की हृथिक और संजय दत्त ने अपनी अदाकारी से इन बातों पर काफी हद तक पर्दा दाल दिया।


फिल्म के संगीत के लिए यही कहा जा सकता है की ये काफी चिकनाहट और चमेली की महक लिए हुए है। लेकिन ये सारी चिकनाहट और महक एक ही गाने में है... जी हाँ “चिकनी चमेली”इस गाने के विषय में दो बाते उल्लेखनीय है वो ये की श्रेया घोसाल ने इसे गया बहुत अच्छा है और दूसरा कटरीना कैफ ने इस गाने में ना सिर्फ डांस अच्छा किया है बल्कि कटरीना के स्लेट की तरह सपाट चहरे पर आप कुछ भाव भी देख सकते हैं। हालांकि फिल्म के बाकी गाने भी फिल्म की मांग जरूर पूरा करते हैं।


हम और आप ही नहीं ऋषि कपूर ने भी कभी ये ना सोचा होगा की अपने इस मासूम और चाकलेटी चहरे के साथ वो कोई ऐसा पात्र भी निभा सकते हैं, जिसके चेहरे से ही कमीनापन टपकता हो। उनकी बेहतरीन अदाएगी को उनको मिले गेटअप ने पूरा साथ दिया।


प्रियन्का चोपरा ना जाने क्यों डान-२ के बाद एक बार फिर नौकरी करती सी लगी. ले दे के कैसे भी उन्होंने अपने काम को खतम किया, हालाँकि ये बात अलग है की उनके पास ज्यादा कुछ था भी नहीं करने को। दूसरी तरफ हृतिक रोशन के पास जरूरत से ज्यादा करने को था। “जरूरत”थी विजय दीनानाथ को निभाने की और “ज्यादा”था अमिताभ बच्चन के साथ होने वाली तुलना से बचाना। इस लिहाज़ से “ज्यादा”की जरूरत, “जरूरत”से ज्यादा थी। हृथिक इस अग्निपथ को पार कर गए। हृथिक के लिए कहना होगा की वो मुश्किल दृश्यों को बड़ी आसानी से कर जाते हैं. चाहे अपना परिचय देने वाला द्रश्य हो, माँ के घर खाना खाने का या फिर फिल्म के अंत में बोली जाने वाली कविता।


लेकिन अब बात उस व्यक्ति की जिसको देख कर ही लगे की मांडवा लेना आसान नहीं जी हाँ कांचा चीना... संजय दत्त की हर बात , उनके काले कपडे, एक कान में बाली, गले के पीछे बना टैटू, उनकी हंसी उनकी चाल, डिजिटली मिटाई गयी उनकी भौएँ, सब कुछ उन्हें उस श्रेणी में खड़ा करता है जहां मोगाम्बो और शाकाल हैं।


किसी फिल्म को पुनः निर्माण का सीधा सा मतलब है तुलना। इस लिए कहा जा सकता है की नयी अग्निपथ अभिनय की द्रष्टि से बेहतर फिल्म है क्युकी पुरानी फिल्म जहा पूरी तरह अमिताभ के कंधो पर थी वही इस फिल्म में कई दमदार पात्र हैं।


लेकिन इस फिल्म का विजय ज्यादा नकारात्मक सोच रखता है। बदले की भावना उसके उन् सिद्धांतों को हनन करती है जो पुराने विजय के पास थे।


लेकिन एक बात है की फिल्म में एक बड़ी समानता भी है वो ये की , डा. हरवंश राय बच्चन द्वारा लिखी गयी कविता में जो अग्नी है उसका ये पथ तो बिलकुल ही नहीं रहा होगा। क्युकी आग लगाकर उस पर दौडना कविता का ये अर्थ तो बिलकुल नहीं है।